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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतके प्राचीन राजवंश प्रबन्धचिन्तामणिकार मेरुतुङ्ग लिखता है कि वह अपने भाई शोभनके उपदेशसे कट्टर जैन हो गया था। उसने जीव-हिंसा रोकनेके लिए भोजको उपदेश दिया था तथा जैन हो जाने पर तिलकमञ्जरीकी रचना की थी । परन्तु तिलकमञ्जरीमें वह अपनेको ब्राह्मण लिखता है । इससे अनुमान होता है कि उक्त पुस्तक लिखी जाने तक वह जैन न हुआ था । तिलकमञ्जरीकी रचना १०७० के लगभग हुई होगी । उस समय पाइय-लच्छी - नाममाला लिखे उसे ४० वर्ष हो चुके होंगे । यदि पाइयलच्छी - नाममाला बनाने के समय उसकी उम्र ३० वर्षके लगभग मानी जाय तो तिलकमञ्जरीकी रचना के समय वह कोई ७० वर्षकी रही होगी । उसके बाद यदि वह जैन हुआ हो तो आश्चर्य नहीं । डाक्टर बूलर और टानी साहब भोनके समय तक धनपालका जीवित रहना नहीं मानते । परन्तु यदि वे उक्त कविकी बनाई तिलकमञ्जरी देखते तो ऐसा कभी न कहते । ऋषभपञ्चाशिका भी इसी कविकी बनाई हुई है। पद्मगुप्त । इसका दूसरा नाम परिमल था । मुञ्जके दरबारमें इसे कविराजकी उपाधि थी । तंजोरकी एक हस्तलिखित नवसाहसाङ्कचरितकी पुस्तकमें 'परिमलका नाम कालिदास भी लिखा है । इसने मुखके मरने पर कविता करना छोड़ दिया था । पर फिर सिन्धुराजके कहने से नवसाहसाङ्कचरित नामका काव्य बनाया । यह भाव कविने अपनी रचित पुस्तक के प्रथम सर्गके आठवें श्लोकमें व्यक्त किया है: दिवं यियासुर्मम वाचिमुद्रामदत्त यां वाक्पतिराजदेवः । तस्यानुजन्मा कविबांधवस्य भिनत्ति तां संप्रति सिन्धुराजः ॥ ८ ॥ अर्थात् - वाक्पतिराजने स्वर्ग जाते समय मेरे मुख पर खामोशीकी मुहर लगा दी थी । उसको उसको छाटा भाई सिन्धुराज अब तोड़ रहा है । १०४ For Private and Personal Use Only
SR No.020119
Book TitleBharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1920
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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