SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 771
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६८ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [वकारादि (७०४२) विद्याधरमण्डूरम् चूर्ण १-१ भाग और गोमूत्र तथा त्रिफलेके काथमें ( र. का. धे. । अम्लपित्त.) बुझा हुवा मण्डूर सबसे दो गुना ले कर सबको त्रिफलाव्योषजन्तुघ्नं दन्त्यग्निग्रन्थिकामृताः । एकत्र मिला कर शूरणके रस या काथ, लाल कुष्ठतेजोवतीमुस्तत्रिगल्लातसूरणाः ।। ईखके रस, अदरकके रस, मुण्डीके रस या काथ, शताहवा नैचुले बीजं भागीं च गजपिप्पली । भंगरेके रस, हड़जोडीके रस, बांझ ककोड़ेके रस, और ताड़के फलके रसकी १-१ भावना दे कर शृङ्गी द्विजीरकं धान्यं वृद्धदारुकपत्रके ॥ उसमें उससे १६ गुना गोमूत्र और ८ गुना सुम्बुरुणि भद्रदारु क्षाराश्च लवणानि च । अजमोदा तालमूली विशाला भूतिकवचा ।। त्रिफलाका काथ मिला कर पुनः पकावें । जब गाढ़ा हो कर करछीको लगने लगे तो ठण्डा करके कोशातकी फलं चैतद बृहत्पत्रकगन्धको । सुरक्षित रक्खें । यावन्त्येतानि चूर्णानि मण्डूरं द्विगुणं तथा ॥ गोमूत्रे त्रिफलाकाथे निषिक्तं श्लक्ष्णचूर्णितम् ।। ___ इसे यथोचित मात्रानुसार सेवन करनेसे कन्दोत्कटशृङ्गवेरश्रावणीकेशराजकः ॥ | उदर विकार, ग्रहणी और अग्निमांद्यादिका नाश रसैः सवज्रवल्लीजैर्वन्ध्यातालस्य सस्यजैः। | होता है। भावयित्वैव तच्चूर्ण गोमूत्रेऽष्टगुणे पचेत् ॥ (मात्रा-१ माशा । ) चतुर्गुणेन त्रिफलाकाथैदै विविलेपनात ।। (७०४३) विद्याधररसः उपयुभीत मतीमान् खादेच्चैव यथावलम् ॥ (विनोदविद्याधररसः) ये च कुक्षिगता रोगा ग्रहणीमार्दवादयः। ( रसे. सा. सं. ; भै. र. ; र. रा. सु. । ज्वरा. ; एतद्विद्याधरं नाम मण्डूरं सर्वरोगनुत् ॥ . यो. त. । त. ५९ ; धन्व. । ज्वरा. ) हर, बहेडा, आमला, सेांठ, मिर्च, पीपल, रसो गन्धस्तानं त्रिकटुकटुकीटङ्कणवरा बायबिडंग, दन्तीमूल, चीता, पीपलामूल, गिलोय, त्रिदन्ती हेमधुमणि विषमेतत्सममिदम् । कूठ, मालकंगनी, नागरमोथा, निसोत, शुद्ध समस्तैस्तुल्यं स्याद्विमल जयपालोद्भवरजः । भिलावा, शूरण ( जिमीकन्द), सोया, हिजलबीज, ततः स्नुक्क्षीरेण प्रचुरमुदितं दन्तिसलिलैः ।। भरंगी, गजपीपल, काकड़ासिंगो, सफेद और द्विगुञ्जास्य प्रौढं जयति वटिका साममतुलं काला जीरा, धनियां, विधारामूल, तेजपात, तुम्बुरु, ज्वरं पाण्डु गुल्मं ग्रहणिगुदकीलोद्भवरुजः। देवदारु, जवाखार, सज्जीखार, सुहागा, सेंधानमक, | मरुच्छ्रलाजीर्ण प्रबलमथसामं क्रिमिगदं संचल, बिड लवण, सामुद्र लवण, काच लवण, विबद्धं प्लीहानं प्रबलमपि विद्याधररसः ।। अजमोद, तालकी मूसली, इन्द्रायणकी जड़, अज- शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, ताम्र भस्म, सोंठ, वायन, बच, तोरी, लोध और शुद्ध गंधक; इनका | मिर्च, पीपल, कुटकी, सुहागा, हर, बहे 1, For Private And Personal Use Only
SR No.020117
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages908
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy