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कषायप्रकरणम् ]
चतुर्थों भागः
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(६५२६) विडङ्गादियोगः यह विदारीगन्धादि गण पित्त, वायु, शोष, ( वृ. नि. र. । आमातिसारा.)
गुल्म, अङ्गमर्द, उर्ध्वश्वास और खांसीको नष्ट
करता है। दीप्ताग्निर्बहुदोषो योविबद्धमतिसार्यते । विडात्रिफलाकृष्णाकषायैस्तं विरेचयेत् ॥ . ___ (६५२९) विदार्यादियोगः यदि अतिसारके रोगीकी अग्नि दीप्त हो और
(र. र. । शूला.) दोष अधिक हों तो उसे बायबिडंग, त्रिफला और | विदारीदाडिमरसः सव्योषलवणान्वितः । पीपलके काथसे विरेचन देना चाहिये। क्षौद्रयुक्तो जयत्याशु शूलं दोषत्रयोद्भवम् । (६५२७) विज्जलस्वरसः
। विदारीकन्द और अनारके रसमें त्रिकुटे ( वृ. मा. । अतिसारा.)
| ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) और सेंधा नमकका चूर्ण
मिला कर पीनेसे त्रिदोषज शूल शीघ्र ही नष्ट हो दलोत्यः स्वरसः पीतो विज्जलस्य समाक्षिकः।
" जोता है। जयत्याममतीसारं क्वाथो वा कुटजत्वचः ॥
(६५३०) विरेचनोपगकषायदशकः पीले फूलकी खरैटीके पत्तोंके रसमें अथवा कुड़ेकी छालके क्वाथमें शहद मिला कर पीनेसे
(च.। सू. अ. ४) आमातिसार नष्ट होता है ।।
द्राक्षाकाश्म>परूषकाभयामलकविभी(६५२८) विदारीगन्धादिगणः ।
तककुवलवदरकर्षन्धूपीलूनीति दशेमानि विरे
चनोपगानि भवन्ति । (सु. सं. । अ. ३८) विदारीगन्धाविदारी सहदेवो विश्वदेवा । बहेडा, कुवल ( मध्यम आकारका बेर), बदर
___ मुनक्का, खम्भारी, फालसा, हर्र, आमला, श्वदंष्ट्रा पृथपर्णी शतावरी सारिवा कृष्ण
(बड़ा बेर), कर्कन्धू ( छोटा बेर ) और पीलु । सारिवाजीवकर्षभको महासहाक्षुद्रसहा वृहत्यौ
ये दश ओषधियां विरेचनमें प्रयुक्त होती हैं। पुनर्नवैरण्डो हंसपादीवृश्चिकाल्वृषभीचेति । विदारीगन्धादिरयं गणः पित्तानिलापहः ।
(६५३१) विशालादिक्वाथः शोषगुल्माङ्गमर्दोर्ध्वश्वासकासविनाशनः ॥
(ग. नि. । श्वयथु. ३३) शालपर्णी, विदारीकन्द, खरैटी, गंगेरन, | विशाला त्रिफला तिक्ता गवाक्षी रजनी त्रिवृत। गोखरु, पृष्ठपर्णी, शतावर, सारिवा, कृष्णसारिवा, | पटोलमूलं त्रायन्ती तुल्या द्वयंशं महौषधम् ॥ जीवक, ऋषभक, माषपर्णी, मुद्गपर्णी, कटेली, क्वाथोऽयं पित्तशोफन्नः पीतो वाऽऽमलकाकटेला, पुनर्नवा, अरण्डमूल, हंसपादी, वृश्चिकाली
द्रसः॥ और कौंच ।
इन्द्रायन, त्रिफला, कुटकी, महाबला, हल्दी,
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