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रसप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
[ २१५]
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(१९००) चन्दामृत रस (र. र.; र.का.धे.।रा.) रसगन्धकलौहानां प्रत्येक कार्षिकं शुभम् । शुद्धसूतं द्विधो गन्धं सततुत्पश्च सैन्धवम् । टङ्कणम पलं दत्वा मरिचस्प पलार्द्धकम् ॥ शमीश्वेतादलद्रावैर्मर्दितं गोलकीकृतम् ॥ नवगुञ्जाप्रमाणेन वटिकां कारयेद्भिषक् । नागवल्लीदलैटयं पाचं पाताल पत्रके (?) प्रात काले शुचिर्भ त्वा चिन्तयित्वा मृतेश्वरीम् ।। दिनान्ते ऊर्ध्वलग्नं तं ग्राह्यं भक्ष्यं त्रिगुजकम्।। एका वटिकां खादेत् रक्तोत्पलरसप्लुताम् । पर्गखण्डेन संयुक्तं मासै फाद्राजयक्ष्मनत । नीलोत्पलरसेनापि कुलत्थरसेन वा ॥ .. रसश्चन्द्रामृतो नाम ह्यनुपानं मृगावत् ॥ पिप्पल्या मधुना वापि शृङ्गवेरर सेन वा । : शुद्र पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग और हन्ति पञ्चविधं कासं वातपित्तसमुद्भवम् ॥ सेंधानमक १ भाग लेकर कजली करके शमी और वातश्लेष्मोद्भवं दोष पित्तश्लेष्मोद्भवं तथा। श्वेता (कोयल) के पत्तों के रस में घोटकर गोला ।
वाति पैत्तिकञ्च। नानादोषसमुद्भवम् ।। बना लीजिए, और उस गोलेको नागरवेल के पानों
रक्तनिष्ठीवनश्चापि ज्वरश्वाससमन्वितम्। में लपेट कर १ दिन पाताल यन्त्रमें पकाइये और
तृष्णां दाहं भ्रमं हन्ति जठराग्निप्रदीपिनी ॥ फिर स्वांग शीतल हो जानेपर रसको निकाल
बलवर्णकरी हयेषा प्लीहगुल्मोदरापहा।। लीजिए।
आनाह कृमिहत्पाण्डुजीर्णज्वरविनाशिनी ॥ इसे ३ रत्तीकी मात्रानुसार पान के साथ सेवन
इयं चन्द्रामृता नाम चन्द्रनाथेन निर्मिता। करनेसे १ मासमें राजयक्ष्मा रोग नष्ट हो जाता है।
वासागुडूचोभार्गी च मुस्त कण्टकारिका।
| सेवनान्ते प्रकर्तव्या गुटिका वीधारिणी ॥ इस रसके अनुपान मृगावत् हैं।
त्रिकटु ( सोंठ, मिर्च, पीपल ) हर्र, बहेड़ा, नोट-मूल पाठमें “ ऊर्वलग्नं तं ग्राह्यं"
आमला, चव, धनिया, जीरा, सेंधानमक, शुद्ध अर्थात् ऊपर लगे हुवे रसको ग्रहण करे, यह लिखा
| पारद, शुद्ध गन्धक और लोहभस्म १।-१। तोला, है परन्तु पातालयन्त्रमें पकाने से रस ऊपर नहीं
सुहागे की खील ५ तोले और मिर्च २॥ तोले ले लग सकता इस लिए या तो पाताल यन्त्र की
कर प्रथम पारे गन्धककी कजली बना लीजिए, जगह बालुका यन्त्र होना चाहिए अथवा · उर्ध्व
त पश्चात् अन्य ओषधियों का चूर्ण मिलाकर बकरी लग्नं' की जगह " स्वांगशीतं" होना चाहिए।
के दूध में घोटकर ९-९ रत्तीकी गोलियां बना (१९०१) चन्द्रामृतवटी
लीजिए। (र. रा. मुं.; भै. र.; र. र.; । यक्ष्मा० ) श्री चन्द्रनाथ निर्मित ये “ चन्द्रामृतवटी " त्रिकटु त्रिफला चव्यं धान्जीरकसैन्धवम् । वातपितज, वातकफज, पित्तकफज, वातज, और प्रत्येकं ते.लक ग्राह्यं छागीक्षीरेण गोलयेत्॥ | पितज खांसी को तथा ज्वर और श्वासयुक्त खांसी
१ सममिति पाठभेदः ।
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