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द्वितीयो भागः ।
लेपप्रकरणम् ]
(१८२२) चतुरङ्गलवर्णादिलेपः ( ग. नि.; वृं. मा. । कु. )
पर्णानि पिष्ट्वा चतुरङ्गुलस्थ तक्रेण पर्णान्यथ काकमाच्याः । तैलाक्तगात्रस्य नरस्य कुष्ठान्युद्वर्त्तयेदश्वरिपुच्छदैश्च ॥ रोगी के शरीरको तैलकी मालिश करानेके पश्चात् अमलतास, मकोय या कनेर के पत्तों को तक्रमें पीसकर मालिश करनेसे कुष्ट रोग नष्ट होता है।
(१७२३) चन्दनादिप्रलेपः (वं. से. । विष. ) चन्दनं पद्मकं कुठं नतं चोशीरपाटले । निर्गुण्डी शारिवा शैलुः लूताविषहरोऽगदः ॥
लाल चन्दन, पद्माक, कूठ, तगर, खस, पाढलकी छाल, संभालु, सारिवा और हिसौड़े (रीठे) की छाल समान भाग लेकर ( पानी, घी या सिरसकी छालके रस में ) पीसकर लेप करने से मकड़ीका विष नष्ट होता है । (१८२४) चन्दनादिलेपः
( वृ. नि. र.; वं. से.; यो. र. ग. नि.; वृं. मा. । शिरो.; शा. ध. । अ. ११ ) चन्दनोशीरयष्ट्याह्नबलाव्याघ्रनखोत्पलैः । क्षीरपिः प्रदेहः स्वात्तैर्वा परिषेचनम् ॥
पित्तज शिरो रोग में लाल चन्दन, खस, मुलैठी, खरैंटी, नखी और नीलोत्पल (नीलोफर ) को दूधमें पीसकर लेप करना चाहिए और इनके जलकी धारा शिरपर डालनी चाहिए ।
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[ १८७ ]
(१८२५) चन्दनादिलेपः
( भा. प्र. खं २; वृ. नि. र. वं. से .; यो. र.; वृं. मा.; ग. नि.; । विस्फो; यो त । त. ६६ ) चन्दनं नागपुष्पञ्च तण्डुलीयकशारिका । शिरीषवल्कलं पत्र' लेपः स्याद्दाहनाशनः ।
लाल चन्दन, नागकेसर, चौला इकी जड़, सारिवा, सिरसकी छाल और सिरस के पत्तों को पीसकर लेप करनेसे विस्फोटककी दाह शान्त होती है । (१८२६) चन्दनादिलेपः
( वृ. नि. र.; वृं. मा. । वृद्धच.; यो. त. । त. ५६ ) चन्दनं मधुकं पद्ममुशीरं नीलमुत्पलम् । क्षीरपिष्टः प्रलेपः स्यात्पित्तवृद्धिरुजापहः ।।
लाल चन्दन, मुलैठी, कमलपुष्प, खस और नीलोफरको दूध में पीसकर लेप करनेसे पित्तज वृद्धि नष्ट होती है । (१८२७) चन्दनादिलेपः
( वृ. नि. र. यो. र. ग. नि. । तृष्णा; यो.
त. । त. ३४ ) अरुणचन्दनचन्दनवालकै लदपद्मकतुल्यकृतांशकैः । शिरसि लेपनमाचरतां नृणां तृडुपयात्युपशान्तिमसंशयम् ॥
लाल चन्दन, सफेद चन्दन, नेत्रबाला, नलद और गद्माक समान भाग लेकर पीसकर शिरपर लेप करनेसे पिपासा अवश्य शान्त हो जाती है । (१८२८) चन्दनादिलेप: (वृ.नि.र.;वं.से. (नेत्र.) चन्दनं मधुकं लोघं जातिपत्राणि गैरिकम् । प्रलेपो दाहरोगघ्नस्तोदाभिष्यन्दनाशनः ॥
१ जातीति पाठान्तरम् ।