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गुटिकाप्रकरणम् ]
द्वितीयो भागः।
[ १५३ ]
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(१७३८) चन्द्रप्रभागुटिका
| भक्तस्य पूर्व सततं प्रयोज्या ( भा. प्र.; वं. से.; । वा. र.; र. का. धे,; र. चं.;
तक्रानुपानादपि मस्तुपानम् । भै. र.; धन्वं. । अर्श.; रसे, चि, म. । अ.९) शुक्रदोषानिहन्त्यष्टौ प्रमेहांश्चापि विंशतिम्। क्रिमिरिपुदहनव्योषत्रिफलामरदारुचव्यभूनिम्बाः वलीपलितनिर्मुक्तो वृद्धोऽपि तरुणायते ॥ मागधीमूलं मुस्तशठीवचाधातुमाक्षिकञ्चैव ॥ वायबिडंग, चीता, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर्र, लवणक्षारनिशायुक्कुस्तु
बहेड़ा, आमला, देवदारु, चव, चिरायता, पीपलाम्बरुगजकणासहातिविषाः।
मूल, मोथा, कचूर, बच, सोनामक्खीभस्म, कर्षाशिकान्येव समानि कुर्या
सेंधानमक, यवक्षार, हल्दी, दारुहल्दी, कुस्तुम्बरु त्पलाष्टकं चाश्मजतु प्रदद्यात् ॥ (नैपाली धनिया ) गजपीपल और अतीस १-१ निष्पत्रशुद्धस्थ पुरस्य धीमा
कर्ष, ( १। तो.) शुद्ध शिलाजीत ८ पल (४० पलद्वयं लौहरजस्तथैव ।
तोले ); शुद्ध गूगल २ पल, लोहभस्म २ पल सिता चतुष्कं पलमत्र वा स्या
मिश्री ४ पल, निसोत, शुद्ध जमालगोटा, दारचीनी, निकुम्भकुम्भत्रिजुगन्धयुक्तम् ॥
इलायची और तेजपात १-१ पल ( ५ तोले ) पृथक्पलं चूर्णमथावपेच
लेकर (प्रथम शिलाजीत, लोह और गूगलको एकत्र चन्द्रप्रभेयं गुटिका विधेया।
करके उन रोगोंको हरनेवाली ( कि जिनमें प्रयुक्त ज्वरातिसारग्रहणीविकारां
करना हो ) ओषधियोंके काथकी अनेक भावनाएं चाशीसि निर्णाशयते पडेव ॥
दीजिए तत्पश्चात् अन्य समस्त ओषधियोंका भगन्दरान्कामलपाण्डुरोगा
महीन चूर्ण मिलाकर ( त्रिफला क्वाथमें ) घोटकर निनष्टवतेः कुरुते च दीप्तिम् । गोलियां बना लीजिए। हन्त्यामयान्पित्तकफानिलोत्था
यह 'चन्द्रप्रमा गुटिका' ज्वरातिसार, ग्रहणी नाडीगते मर्मगते व्रणे च ॥ क्षतक्षये गृध्रसियक्ष्मरोगे
विकार, ६ प्रकारको अर्श, भगन्दर, कामला, पाण्डु, मेहे गजाख्ये प्रबले प्रयोज्या।
वात-पित्त-कफज अनेक रोग, नाडीव्रण, मर्मशुक्रक्षये चाश्मरीमूत्रकृच्छे
स्थानका व्रण, क्षत, क्षय, गृध्रसी, राजयक्ष्मा, शुक्रप्रवाहेऽप्युदरामये च ॥
हस्तिमेह, शुक्रक्षय, अश्मरी, मूत्रकृच्छू, शुक्रस्राव, शम्भुं समभ्यर्च कृतप्रसाद
और उदर रोगोंका नाश करती है । प्राप्ता गुटी चन्द्रमसा प्रशस्ता। इसे भोजनके प्रारम्भमें तक या मस्तुके साथ न पानभोज्ये परिहारवादो
सेवन करना चाहिए । इसके सेवनकालमें किसी न शीतवातातपमैथुनेषु ॥ प्रकारके परहेजकी आवश्यकता नहीं है । भा० २०
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