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________________ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [१२६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [गकारादि कर जीरे और भांगरेके रसमें १ दिन घोटकर भांगका चूर्ण इन सबके बराबर लेकर प्रथम पारे एक गोला बनाइये और उसे सुखाकर लोहपात्रमें गन्धककी कजली बना लीजिए तत्पश्चात् अन्य रखकर २ घड़ी तक अग्निपर पकाइये । तत्पश्चात् औषधोंका चूर्ण मिलाकर खरल कीजिए । उसमें उसके बराबर मोचरसका चूर्ण मिलाकर इसे प्रातःकाल २ माशेकी मात्रानुसार चावभांगके रसकी ७ भावना धूपमें दीजिए (रस डाल लोंके पानीके साथ सेवन करनेसे ग्रहणी, तृष्णा, डालकर धूपमें सुखाइये ।) ज्वर और पक्कातिसार, आमातिसार, अनेक वर्ण इसे २ माघेकी मात्रानुसार शहदमें खानेसे । संयुक्त तथा वेदनायुक्त अतिसार और विशेषतः ग्रहणीरोग नष्ट होता है। सूजनका नाश होता है। यह असाध्य संग्रहणी (१६१२) ग्रहणीशाईलचूर्णम् ( रसः) पाण्डु और जीर्णज्वरको भी नष्ट करता है तथा ( भै. र, । ग्रहण्य० ) अग्निको बडवानलके समान तीब्र कर देता है । रसगन्धकलौहाभ्रं हिङ्गलवणपञ्चकम् । .. । (१६१३) ग्रहणीशार्दूलरसः । हरिद्रे पाकलञ्चैव वचामुस्तविडङ्गकम् ।। (र. सा. सं.; र. चं. । ग्रह० ) त्रिकटुत्रिफलाचित्रमजमोदायमानिका। रसगन्धकयोश्चापि कर्षमेकं सुशोधितम् । गजोपकुल्या क्षाराणि तथैव गृहधृमकम् ॥ द्वयोःकज्जलिकां कृत्वा हाटकं षोडशांशतः॥ एतेषां कार्षिकं चूर्ण विजयाचूर्णकं समम् । लवङ्गं निम्बपत्रश्च जातीकोषफले तथा। माषद्वयमिदं चूर्ण शालितण्डुलवारिणा ॥ एतेषां कर्मचूर्णेन सूक्ष्मैलां सहमेलयेत् । भक्षयेत्पातरुत्थाय ग्रहणीगदनाशनम् । मुक्तागृहेन संस्थाप्य पुटपाकेन साधयेत् ॥ अग्निञ्च कुरुते दीप्तं वडवानलसनिभम् ।। गुञ्जापञ्चप्रमाणेन प्रत्यहं भक्षयेन्नरः। सर्वातीसारशमनं तृष्णाज्वरविनाशनम्। जूतिकां ग्रहणीरोगं हरत्येपःसुनिश्चितः।। पक्कापक्कमतीसारं नानावणे सवेदनम् ॥ । अर्शन्नो दीपनश्चैव बलपुष्टिप्रसादनः। आमातिसारमखिलं विशेषाच्छयधुं जयेत् ।। कासश्वासातिसारघ्नो बलवीर्यकरःपरः॥ असाध्यां ग्रहणी हन्ति पाण्डुप्लीहचिरज्वरान्॥ दुर्वारं ग्रहणीरोगश्चामशूलश्च नाशयेत् । शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोह भस्म, अभ्रक संसारलोकरक्षार्थ पुरा रुद्रेणभाषितः॥ भस्म, हींग, पांचो नमक ( सेंधा, काला नमक, शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक १-१ कर्ष समुद्र नमक, खारी नमक, काच लवण ) हल्दी, (१। तोला) लेकर दोनों को खरल करके कजली दारुहल्दी, कूठ, बच, नागरमोथा, वायबिडंग, बना लीजिए तत्पश्चात् उसमें इसका सोलहवां सोंठ, मिर्च, पीपल, हैड़, बहेड़ा, आमला, चीता, भाग स्वर्ण भस्म और लौंग, नीमके पते (शुष्क), अजमोद, अजवायन, गजपीपल, जवाखार, सज्जी- जायफल, जावित्री और छोटी इलायचीका चूर्ण खार, सुहागा, और धरका धुवां; १-१ कप तथा १-१ कर्ष मिलाकर मोतीकी सीपके जोड़ेमें बन्द For Private And Personal
SR No.020115
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages597
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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