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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसपकरणम्] परिशिष्ट ६२१ (९५२७) कृमिविनाशनरसः (९५२८) कृम्यकुशोरसः (रसे. सा. सं. । कृम्य.) (र. प्र. सु. । अ. ९) शुद्धसतं समं गन्धमभ्रं लौहं मनःशिला। माना । घातकी त्रिफला लोनं विडङ्गं रजनीद्वयम् ॥ क्रिमिजित्क्वाथसंयुक्तं कृमिकोटिविनाशनम् ॥ भावयेत्सप्तधा सर्व शृङ्गवेरभवैरसैः । समान भाग शुद्ध पारद और गंधकको कज्जचणमात्रां वटीं कृत्वा त्रिफलारससंयुताम् ॥ पुताम्" लीको नीमके तेल में खरल करें। भक्षयेत्मातरुत्थाय कृमिरोगोपशान्तये । वातिकं पैत्तिकं हन्ति श्लैष्मिकश्च त्रिदोषजम् । . ___इसे बायबिड के क्वाथके साथ सेवन करने क्रिमिविनाशनामायं क्रिमिरोगकुलान्तकः ॥ | से कृमिसमूह नष्ट हो जाता है। शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, अभ्रक भस्म, लोह (९५२९) कृष्णादिचूर्णम् भस्म, शुद्ध मनसिल, धायके फूल, हर', बहेड़ा, (वृ. मा. । परिणामशूला. ) आमला, लोध, बायबिडंग, हल्दी और दारुहल्दी कृष्णाभयालोहचूर्ण लियात्समधुशर्करम् । समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली परिणामभवं शूलं सद्यो इन्ति सुदारुणम् ॥ बनावें और फिर उसमें अन्य ओषधियों का चूर्ण मिलाकर सबको एकत्र खरल करके अदरकके रसकी पीपल, हर और लोहभस्म समान भाग लेकर सात भावना दें और चनेके समान गोलियां बना लें। एकत्र खरल करें। इनमेंसे (२-२ गोली ) प्रातः काल त्रिफलाके इसे खांड और शहद के साथ मिलाकर खानेसे काथके साथ सेवन करनेसे वातज, पित्तज, भयंकर परिणाम शूल तुरन्त नष्ट हो जाता है। कफज और सन्निपातज कृमिरोग नष्ट होता है। (मात्रा-३ रत्ती ।) इति ककारादिरसपकरणम् For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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