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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५२ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः [ अकारादि अभ्रकको तपा तपाकर सात बार कांजी या अभ्रकको तपा तपा कर ( सात सात बार ) गोमूत्रमें बुझानेसे वह शुद्र हो जाता है। त्रिफलाके क्वाथ, गोदुग्ध, गोमूत्र और भंगरेके रसमें (र. प्र. सु. में केवल कांजी द्वारा शोधन | बुझानेसे वह शुद्ध हो जाता है। लिखा है।) (८९७४) अभ्रकसत्वनिष्कासनविधिः (८९७१) अभ्रक शोधनम् (३) ( आ.वे. प्र. । अ. ४) ( आ. वे. प्र. । अ. ४ ; वृ. यो. त. । त. ४१ ; पिण्डीकृतं तु बहुधा महिषीमलेन यो. र. ; यो. चि. म. । अ. ७ ; भा. प्र. पू. ___ संशोष्य कोष्ठगतमाशु धमेद्धठानौ । सत्वं पतत्यतिरसायनजारणार्थ खं. ; र. र.) ___ योग्यं भवेत्सकललोहगुणाधिकं च ।। वज्राभ्रक धमेद्वह्नौ ततः क्षीरे विनिक्षिपेत् । सप्तधा भिमपत्रं तत्तण्डुलीयाम्लयोवैः ॥ भावयेदष्टयामं तदेवं शुध्यति चाभ्रकम् ॥ कणशो यद्भवेत्सत्वं मूषायां प्रणिधाय तत । ___ वजाभ्रकको अग्निमें तपाकर दूधमें बुझा दें। मित्रपश्चकयुगध्मातमेकी भवति घोषवत् ।। घृतमधुगुग्गुलु गुलाटणमेतत्तु मित्रपञ्चकं नाम । इसी प्रकार सात बुझाव देनेके पश्चात् जब उसके मेलयति सप्तधातूनगारामौ तु धमनेन ॥ पत्र अलग अलग हो जाएं तो उसे चौलाईके रस और कांजीकी ८-८ पहर भावना दें। इस विधिसे अभ्रक शुद्ध हो जाता है। सत्त्वमभ्रस्य शिशिरं त्रिदोषनं रसायनम् । (८९७२) अभ्रक शोधनम् (४) विशेषात्पुंस्त्वजननं वयसः स्तम्मनं परम् ॥ नानेन सदृशं किश्चिद्वेषज्यं पुंस्त्वकृत्परम् । (र. रा. सु.) सखसेवी वयः स्तम्भ लभते नात्र संशयः ।। आदौ मुतापितं कृत्वा गगनं सप्तधा क्षिपेत् । ___ शुद्धाभ्रकके चूर्णको भैंसके गोबरमें मिलाकर निर्गुण्डी स्वरसे सम्यक् गिरिदोषप्रशान्तये॥ छोटे छोटे गोले बनावें और उन्हें सुखाकर मूषामें ___अभ्रकको भली भांति तपा तपा कर सात बार रखकर तीब्राग्नि पर भावें । इस विधि से अभ्रकका निर्गुडी के स्वरस में बुझाने से उसके गिरिसंभव दोष जारणयोग्य समस्त लोहों (स्वर्णादि) से श्रेष्ठ सत्व नष्ट हो जाते हैं। निकल आता है। (८९७३) अभ्रकशोधनम् (५) xxx (र. प्र. सु. । अ. ५) अभ्रकसत्वके जो कण निकलें उन्हें एकत्रित वराक्वाये तथा दुग्धे गवां मूत्रे तथैव च ।। करके मित्रपंचकके साथ मूषामें रखकर तीब्राग्नि पर मार्कवस्य रसेनापि दोषशून्यं प्रजायते ॥ . | धमाने से वे सब मिलकर एक हो जाते हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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