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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसप्रकरणम् ] स्वेदयेद्दिनमेकं तु काञ्जिकेन तथाभ्रकम् । पश्चात्कुलत्थजे काये तक्रे मूत्रेऽथ वह्निना ॥ पाचितं दोषशून्यं तु शुद्धिमायाति निश्चितम् । अभ्रक ४ प्रकारका होता है; (१) सफेद (२) पीला (३) लाल और (४) सुन्दर कृष्ण वर्ण का । स्वेताक श्वेत क्रिया ( चांदी बनाने ) में; लाल और पीला पीतक्रिया ( स्वर्ण निर्माण ) में और काला औषधों में प्रयुक्त होता है । परिशिष्ट उपरोक्त चारों प्रकारके अभ्रक के ४-४ भेद होते हैं - (१) वज्र (२) पिनाक (३) नाग और ( ४ ) मण्डूक | इस प्रकार अभ्रक १६ भेद हैं । उपरोक्त भेदों में केवल वज्राभ्रक ही औषधों में प्रयुक्त होता है शेष तीन प्रकारके अभ्रक खानेसे अनेक घोर व्याधियां उत्पन्न होती हैं । X X X Eatest में तपानेसे उसमें किसी प्रकारका परिवर्तन नहीं होता-न वह फूलता है, न कूदता है और न शब्द करता है । इसे सेवन करनेसे शरीर वज्रके समान दृढ़ हो जाता है और ( रोगजनित ) मृत्यु नहीं होती । X X X जिस अभ्रकको अग्नि में तपानेसे उसके पत्र अलग अलग हो जाएं उसे " पिनाक " कहते हैं । इसे सेवन करने से १ मासमें ही कृमि और कुष्ठ रोग उत्पन्न हो जाते हैं । x X X नागाभ्रक को अग्निमें तपानेसे सर्प की फुंकारके समान शब्द होता है । इसे सेवन करने से क्षय रोग Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५१ उत्पन्न होता है । नागात्रको वैद्य हालाहल विष समान मारक मानते हैं । + + + मण्डूका को अग्निमें तपानेसे वह मेंढक के समान बारबार कूदता है और जरा देर भी अग्निमें स्थिर नहीं रहता । रस - विज्ञान - वेत्ता इसे भी असेव्य बतलाते हैं । + + + बलि पलित का नाश और शरीरको दृढ़ करने के लिये केवल वज्राकी उत्तम रीति से बनी हुई भस्म ही सेवन करनी चाहिये । यह भस्म सर्वरोग - नाशक, त्रिदोषशामक, अग्नि दीपक, वीर्यस्तम्भक तथा वर्द्धक, मूत्रकृच्छ्रादि नाशक, एवं भूतोन्माद, शोथ और ज्वरको नष्ट करनेवाली तथा शीघ्र बलवर्द्धक होती है। इसके सेवन से स्मृति भी बढ़ती है । + + + जो अभ्रक भस्म निश्चन्द्र न हो - जिसमें तनिक भी चमक हो उसे कदापि सेवन न करना चाहिये । वह विष, वज्र, शस्त्र और अग्निके समान घातक होती है। अभ्रकको १ - १ दिन क्रमशः काञ्जी, कुलथीके क्वाथ, तक और गोमूत्र में पकानेसे वह शुद्ध हो जाता है । For Private And Personal Use Only (८९७०) अभ्रकशोधनम् (२) र. र. स. । पू. खं. अ. २ ; यो. र. ) प्रतप्तं सप्तवाराणि निक्षिप्तं काञ्जिके भ्रकम् । निर्दोषं जायते नूनं प्रक्षिप्तं वापि गोजले ||
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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