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भामिनी-विलासे तस्मिन् = देवोद्याने इत्यर्थः । परिमलः = आमोदः । गीर्वाणानां = देवानां चेतो हरतीति, एवंविधः अस्तीतिशेषः । एवम् = अनेन प्रकारेण, दातृणां गुरुः तस्य दातूगुरोः = वदान्यप्रवरस्य । सर्वे = निखिलाः अपि, गुणाः लोकोत्तराः = अनुपमाः स्युः । यदि । अर्थिप्रवराणां = याचकश्रेष्ठानां या अर्थिता = याचकत्वं तस्या अर्पणविधौ = दानप्रकारे । विवेकः = विचारशीलता, अपि स्यात् । येन यद्याच्यते स तत्पात्रमस्ति न वेति विचारवत्ता यदि स्यात्तवेति भावः । ____ भावार्थ-हे कल्पवृक्ष ! तुम्हारी उदारता त्रिभुवनमें प्रसिद्ध है, उत्पत्ति महान् जलनिधिसे हुई है, वास नन्दनवनमें हैं, तुम्हारी सुगन्ध, देवताओं का भी चित्त हरण कर लेती है। इस प्रकार किसी श्रेष्ठ दातामें रहनेवाले सभी गुण तुममें होते, यदि याचककी याचनापूर्तिके समय तुम उसकी पात्रताका विवेक भी करते ।
टिप्पणी-इसी भावको 'नीरान्निर्मलतः' पद्यमें व्यक्त कर चुके हैं। अन्तर केवल इतना ही है कि वहाँ अन्योक्ति कमलको सम्बोधित करके कही गई थी यहाँ कल्पवृक्षको। उसमें मधुपसे प्रेम करना न्यूनता थी इसमें पात्रापात्रका अविवेक। इस प्रकार वक्ता एक होनेपर भी मुक्तक काव्यमें पद्योंके परस्पर निरपेक्ष होनेसे और नीतिविषयक उपदेशका बोधक होनेसे इसमें पुनरुक्ति दोषकी कोई सम्भावना नहीं, प्रत्युत इससे रसका पोषण ही होता है। किन्हीं पुस्तकोंमें 'सुरतरोः' ऐसा षष्ठयन्त पाठ भी है।
इस पद्यमें प्रयुक्त चारों विशेषणोंसे सुरतरुकी कीर्ति, समुत्पत्ति, आवास और गुणसम्पत्तिकी लोकोत्तरता सूचित होती है। कल्पवृक्ष समुद्रमन्थनके समय निकले हुए चौदह रत्नोंमें एक है, जिसे इन्द्रने लाकर अपने नन्दनवनमें रक्खा था। इसकी यह विशेषता है कि इससे जो कुछ मांगा जाय वह उपलब्ध हो जाता है, ऐसी पौराणिक प्रसिद्धि है।
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