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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अश्वगया. ७६ अश्वगंधा श्राए (अर्थात् समस्त अश्ववाचक शब्द ), उन | . नागौरी असगंध भी कहते हैं। नागौरी असगंध सब को असगंध का पर्याय समझना चाहिए, सर्वोत्तम होता है। . .. जैसे, तुरंगगन्धा वा हयाह्वया प्रभृति । अश्व वानस्पतिक-वर्णन-असगन्ध के जुष कदिका, काम्बूका, अश्वावरोहकः (र), अश्वा २-२॥ हाथ उच्च एवं शाखाबहल होते हैं। रोहा (हे), हयगंधा, वाजिगंधा, अश्वगन्धिका, पत्र युग्म (जोड़े जोड़े), अण्डाकार, प्रखंड, बल्या, तुर(ग, अ) गन्धा, कम्बुका, अशवारोहिका, २ से १ इंच दीर्घ, स्वतन्त. लोमश तथा चौडे तुरगी, बलजा, वाजिनी, अवरोहिका, वराहकर्णी, होते हैं । पुष्प शुद्र, ह्रस्वन्त, कोय ( पत्रहया, पुष्टिदा, बलदा, पुष्टिः, पीवरा, पलाशपर्णी, वृन्तमूल से होकर प्रस्फुटित होते ), शाखाग्र वातघ्नी, शयामला, कामरूपिणी, काजा, प्रिय. स्थित, दलबद्ध दल (पाभ्यंतर कोप )घण्टाकरी, गन्धपत्री, हरनिया, बाराहपत्री, वाराहकर्णी, ल्याकार, पीताभ हरिद्वण, और अत्यंत लघु होते तुरंगगन्धा, तुरगा, वाजिना. वनका. हयप्रिया, हैं 1 फल छोटे, लाल, मसूण, मटराकार, एक कम्बुकाष्ठा, अवरोहा, कुष्ठघातिनी, रसायनी और झिल्लीवत् कुण्ड (Calvx ) से प्रावरित और तिका । गुण प्रकाशिका संज्ञाएँ-"पुष्टिदा", शिखर पर खुले हुए होते हैं, बाज असंख्य "वल्या", "वातमी" "वाजीकरी" | हिन्दीकाक नज-द० । अश्वगंधा-बं० । काकनजे हिन्दी अतितुद्र, लगभग एक इंच का वाँ भागदीर्घ, -१०, फ़ा। बहमन बरी-फा। विथेनिया पीताभश्वेत, वृताकार, पार्श्वद्वय संकुचित; बीज सोम्निफेरा ( Withania somnifera, बाह्यावरण ( 'Testa) मधुमक्षिकागृहवत् होता Dunal.), फाइसेलिस फ्लक्सुअोसा ( Phy. है। समग्र तुप हस्व, सशाख, सूक्ष्मान रोमों salis fluxuosa..), फाइसेलिस सोम्निफ्रेंरा. | से पाच्छादित होता है । मूल मूलकवत् शंक्वा. ( Physalis somnifera, ! anal.) कार, किंतु क्षीण-ऊपर से हलका धूसर परंतु - ले० विण्टर चेरी( Winter cerry.) तोड़ने पर भीतर शवेत होता है। कच्ची जद से -९० । मूरेङ्कप्पेन ( Moorenkappen ) अश्व मूत्रवत् (तीक्ष्ण अग्राह्य ) गंध आती -डच० । अङ्क लाङ्ग का लंग, अश्वगराडी-ता०। है, इसी कारण इसको अश्वगंध प्रभृति नामों से पेबेरु-गड, अश्वगंधी, पिल्ली प्रांगा-ते. । पेवेट्टे, अभिहित करते हैं। शुष्कावस्था में गंध नहीं अमुकिरम्-मल | अंगबेरु, सोगडे-बेरु, हिरे-वेरू, होती एवं यह अत्यंत मृदु होती है। इसका हिरे-महिन(-वेरु )-कना०। प्रासकन्द, असन्ध, स्वाद तिक्त होता है। प्रासंध, प्रासांतु, अंगुर, श्रासन्धिका, अशव. गन्धा, तुला, कञ्च की, दोरगुञ्ज-मह० । पारव व्यापार में आनेवाली शुष्क जड़ ४ से - सन्ध, पासोंध (घ), प्रासन-गु० । फतरफोदा इञ्च लम्बी और शिखर से किञ्चित् अधःस्थ -गो० । ढोरगुज-दे० । असगन्ध-यम्ब० । बय-: स्थूलतम भाग चौथाई से पाच इंच चौड़ा मन-सिंध । अमुक्रा-सिंहली। .: : ( व्यास)होता है । यह मसूण, चिक्कण, शंकता. कार, बाहर से हलका पीताभधूसर वर्ण का और . भीतर से शवेत एवं भंगुर होता है। टुकड़े लघु (N. 0. Solanacea.) " और शवेतसार पूर्ण होते हैं। मूल विरला हो उत्पत्ति-स्थान-भारत के शुष्क एवं अधोष्ण | " संशाख होता है । शिखर से संश्लिष्टः कतिपय भाग यथा बम्बई, पश्चिम भारतवर्ष वा पश्चिमी कोमल काण्ड के अवशेष वर्तमान होते हैं। घाट और कभी कभी बंग प्रदेशमें मिल जाता है । ...अणुवीक्षण द्वारा परीक्षा करने पर जड़ में पाए असगंध नागौर, प्रदेश में बहुत होता है और | जाने वाले पदार्थ प्रधानतः कोमल, श्रण्डाकार, वहाँ से सर्वत्र भेजा जाता है। इसी हेतु. इसको कोषावृत श्वेतसार द्वारा निर्मित होते हैं। यह वृरती व For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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