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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रर्जुन अस्तु इस बात का समझना अत्यन्त कठिन कि इसकी अलग अलग जातियों के इन्द्रयव्यापा.fer एवं श्रौफ्योगिक प्रभाव पृथक् पृथक् है । अस्तु प्रागुक्र शोधों की पुष्टि हेतु विशेष अध्ययन अपेक्षित है । ३६४. युनानी मन- प्राचीन यूनानी ग्रंथों में अर्जुन का वर्णन नहीं मिलता । हाँ ! वर्तमानकालीन लेखकों ने इसका कुछ सामान्य वर्णन किया है। उनके मतानुसार यह प्रकृति- - उध्या व रूक्ष २ कक्षा में, किसी किसी के मत से ३ कक्षा में रंग- श्वेताभधूसर । स्वाद- बिका | हानिकर्त्ता - उष्ण प्रकृति को तथा श्राध्मानजनक है | दर्पन - मधु, घृत व तैल। प्रतिनिधि - पलाश स्वक् । प्रधान कार्य-काम शक्रवद्धक तथा शुक्रमेहघ्न । मात्रा - ३ मा० से ४ मा० । गुण, कर्म, प्रयोग — कफविकारनाशक, है और पित्तदोष में लाभप्रद है । तृत में इसका पान व प्रलेप हितकर हैं। इसकी छाल कामोहीपक है एवं शुक्रमेहघ्न है । ( लगभगविषैल ) म० मु० । इसके अतिरिक्त इसकी छाल शुक्रतारल्य एवं मज्ञी व वदी के पतलेपन तथा कामशक्ति के लिए हितकर है। यह मूत्रप्रस्त्रावाधिक्यको नष्ट करता है । कामशक्ति के बढ़ाने के लिए कतिपय वत्य श्रौषध में योजित कर इसका हलुवा लाभदायक होता है | भारतीय इसका अधिकता के साथ उपयोग करते और इसको परीक्षित बतलाते हैं; परन्तु यह उतना सत्य नहीं । बु० मु० । नव्यमत जुन स्वक् कषाय तथा वल्य है । यह हृद्रोगी के लिए उपयोगी है। तृत, प्रण तथा पिष्ट अंग के प्रचालन हेतु इसकी छाल के क्वाथ का स्थानिक उपयोग होता है । अस्थिभग्न किम्वा नेत्र शुक गत रकफूली अर्थात् अर्जुन ( Ecchymosis) में अर्जुन श्वक् को पीस कर प्रलेप करें । एतद्देशीय लोग रक्तस्रुति किम्वा अन्यान्य प्रखावों Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्जुन घृतम् ( यथा प्रावाहिकीय श्लेष्मस्त्राव तथा प्रदर संबन्धी रक्त स्राव इत्यादि) में अर्जुन स्वक् का प्रयोग करते हैं । वे अश्मरी व शर्करादि प्रतिषेधक रूप से भी इसका व्यवहार करते हैं। ( मे० मे० श्रॉफ इं० आर० एन० खोरी, २ य खं०, २५८ पृ० । फा० ई० २ भा० ११ पृ० दस० ) यह पैत्तिक विकारों में लाभप्रद तथा विषों का अगद है । त्वक् कषाय और ज्वरन 1 फल वलय तथा रोधोद्घाटक एवं नवीन पत्रस्वरस कर्णशूल में हितकर है। ( बेडेन पॉवेल पंजाब प्रॉडक्ट ) काँगड़ा में स्वक् त प्रभृति में प्रयुक्त होता है । (ट्युबर्ट) श्रजुनम् arjunam - सं० की ० तृणमात्र ( Gr asses. ) । हला० । ( २ ) सुवर्ण | Gold (Aurum ) मे० नत्रिकं । ( ३ ) कास तृण । ( Saccharum spontaneum.) र मा० । ( ४ ) दर्भ भेद, कुश ( Poa cynosuroides. )। ( ५ ) श्वेत वर्ण के या कुटिल गति से जाने वाले कीट । श्रथ० सू० ३२ । ३ । का० २ । अर्जुन arjuna-हिं。संज्ञा पु ं० पुन्यन (Ehratia acuminata. ) मेमो० । (२) चुक, बड़ा गाछ-बं० | भूताङ्कुसम् ते० । घनसुरा म० । गोटे - सन्ता । ( Croton oblon• gifolius ) फा० ई० । देखो - अर्जुनः । अर्जुन गाछ arjuna gachh- बं० अर्जुन, कहू, कोह । ( Terminalia arjuna) अर्जुन घृतम् arjuna ghritam - ० ली० ( १ ) अर्जुन की छाल के रस और कल्क से सिद्ध किया घृत समस्त हृदरोग के लिए लाभदायक है। भै० ० र० । (२) अर्जुनकी छाल के दल्कसे तथा स्वरस से पकाया हुआ घी सम्पूर्ण हृदय रोगों में हितकारी योग तथा निर्माण विधि- घृत ४ श०, अर्जुन स्वरस ४ श०, कल्कार्थ 1 त्वक् १ श० । सा० कौ० । भैष० । For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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