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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भर्नाटा १५३ अर्नाटा की शक्ति घट जाती है। अस्तु यह नाड़ी की गति को भी शिथिल करता है। नाड़ी की गति का उक्र शैथिल्य फुप्फुस वा आमाशय नाड़ी प्रांत के क्षोभ के कारण होता है। क्योंकि अर्गट से पूर्व यदि ऐट्रोपीन (धन्तूरीन ) दी जाए तो फिर ऐसा नहीं होता ।अतः इससे प्रथम रक भार घट जाता है अर्थात् अर्गटसे हदय निर्बल होजाता और नाड़ी शिथिल हो जाती है। (Tyrosine.) से कर्बनद्विोषित (C0,) का बिच्छेद कर भी यह प्रस्तुत किया जा सकता है और उपवृक सत्ववत् प्रभाव करता है। प्रांतस्थ सौषुम्न वात-तन्तुओं के अंतिम माग पर प्रभाव करके यह कोष्टगत दीवारों का प्राकुचन उत्पन्न करता है और गर्भित जरायु की पेशियों का भी संकोच उत्पन्न करना है। (३) अर्गेमीन (Ergamine.)उसी प्रकार पचनकारक कीटाणुओं की क्रिया द्वारा यह हिस्टिडीन (Histidine.) से भी भिन्न किया जा सकता है। यह धमनिकाओं का महत् विस्तार उत्पन्न करता है और इससे गर्भावस्था से पूर्व भी गर्भाशयिक मांसतन्तुओं का सशक्र बल्य पाकुचन उपस्थित होता है। जलविलेय न होने के कारण चूँ कि अोटॉक्सीन फांट वा तरल सत्व में विद्यमान नहीं रहता, अतएव इन औषधों की पूर्ण मात्रा द्वारा उत्पन्न प्रभाव, टायरेमीन के धमनिका-संकोचन ( Vaso. constrictor) प्रभाव के कारण होना अबश्यम्भावी है,जो कि प्रर्गेमीन की धमनिका प्रसारण ( Vaso-dilator) शक्ति की अपेक्षा अत्य रक्त वाहिनो - ( रक्क भार ) अधिकतर धामनिक मांसतंतुओं पर अर्गट का सरल प्रभाव होने से और किसी भांति इससे सौषुम्न धामनिक गत्युत्पादक केन्द्रों (Vaso-motor centre) को गति प्राप्त होने के कारण सम्पूर्ण शरीर की धमनियों के सबल रूप से प्रांकुचित होने से रक्रभार जो प्रारम्भ में कम होगया है। अब वह शीघ्र बढ़ जाती है। यही नहीं प्रत्युत शिराऐं भी किसी प्रकार संकुचित हो जाती हैं । सारांश यह कि अर्गट से सम्पूर्ण शरीर की रक्त वाहिनियों विशेषतः छोटी २ धमनियों के संकुचित होजाने और स्फेसीलिनिक एसिड के प्रभाव से उनकी दीवारों के स्थूल हो जाने के कारण यह एक सार्वागिक रकस्थापक (General Hemostatic) है । अस्तु यदि अर्गट को अधिक काल तक सेवन किया जाए तो शारीरिक धमनियों के संकुचित होजाने के कारण शरीरके विभिन्न भागमें गैंग्रीन ( Gangrene ) हो सकता है, जिससे गैंग्रीनस अगोटिज़्म (Gangrenous. ergotism ) होजाया करता है । इसको अत्यधिक मात्रा वा विषैली मात्रा में प्रयुक्त करने से वैसोमोटर सेण्टर्ज ( धामनिक गत्युत्पादक केन्द्र ) वातग्रस्त हो जाते हैं । हृदय के निर्बल होजाने और धमनियों के प्रसारित हो जाने के कारण रकभार बहुत घट जाता है। मुख-प्रामाशय तथा प्रांत्र--अर्गट का स्वाद तिक्क है। यह लालाप्रसाववर्द्धक है अर्थात् इससे अधिक लाला ( थूक) उत्पन्न होती है। मध्यम मात्रा में प्रयुक्त करने से यह प्रांतीय स्वाधीन वा अनैच्छिक मांसपेशियोंको गति प्रदान करता है । अस्तु, प्रांत्रस्थ कृमिवत् प्राकुचन तीब्र हो जाता है। कभी कभी तो यह प्रभाव इतना बढ़ जाता है कि विरेक पाने प्रारम्भ हो जाते हैं। अधिक मात्रा में उपयोग करने से यह प्रामाशय तथा प्रांत्र में क्षोभ उत्पन्न कर देता है। शोणित--इसके प्रभावात्मक अंग तत्काल रक में प्रविष्ट हो जाते हैं, परन्तु रक्क पर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं होता। हृदय--अर्गट हार्दिक मांसपेशियों पर अवसादक या नैवल्योत्पादक ( Depressant) प्रभाव करता है अर्थात् इससे हार्दीय मांसपेशियों | श्वासोच्छ वास-अर्गट श्वासोरख वास को कम करता है। प्रस्तु, श्वासोच्छवास सम्बन्धी मांसपेशियों की निर्बलता तथा प्राक्षेप के कारण श्वासावरोध होकर मृत्यु उपस्थित होती है। For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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