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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरण्यवाद ५६४ अरण्यवाताद मल० । हलियम पियू, लेट् कोय्-बर०। कुप्रो. मद, विरोही-गो० । नय॑ उद्गु ०, मह० । श्रावर्तनी वा मरोडफली वर्ग (N. O. Sterculiaceae). उत्पत्ति स्थान-पश्चिमी घाट (वा प्रायद्वीप), दक्षिण भारत, कोंकण, मालाबार, ब्रह्मा और लंका। वानस्पतिक-विवरण-इसके विशाल वृक्ष होते हैं । स्टक्युलिया की अनेक जातियों से वृहत् तैलीय बीज प्राप्त होते हैं, जिन्हें दिहाती लोग खाते हैं। बीज श्रद्ध अंडाकार १ इंच लंबे और आध इंच चौड़े (व्यास), एक ढीले श्यामवण की झिल्ली से आच्छादित होते हैं। आधार पर एक पीतवर्ण का अर्बुद होता है। कठिन श्यामत्वचा एक उण जटित स्तर से आच्छादित होती हैं । यह भीतर से धूसर एवं मखमली होती, और इसके भीतर बीज के प्राकार की एक तैलीय श्वेत गिरी सम्पुटित होती है । प्रत्येक बीज का भार लगभग २ ग्रामके होता है। छिलका कठिनतापूर्वक चूर्ण किया जा सकता है। ऊणवत् त्वचा जल में बैसोरीन ( Bussorin ) की तरह मदु हो जाती है। गिरी में लगभग ४० प्रतिशत स्थिर तैल और अधिक परिमाण में श्वेतसार विद्यमान होते हैं। रासायनिक संगठन-तैल गाढ़ा, फीका पीतवर्ण का, कोमल और शुष्क नहीं होने वाला है। हॉर्सफ़ील्डके कथनानुसार इसकी फली लुभाबी तथा सङ्कोचक होती है । (ऐन्स्ली ) धूपन रूप से इसका मुख्य उपयोग होता है। कंडू एवम् अन्य स्वग्रोगों में इसका अन्तर और प्रस्तर (उत्कारिका) रूप में वहिरप्रयोग होता है । इसके बीजको भूनकर खाते हैं । ( ई० मे० मे ( ३ ) जंगली बादाम-हिं०, कच्छ,-बं० । जावा श्रामण्ड (Java alimond)-ई० । एलीमाइ ट्री ( Elemi tree), केनेरियम् कम्म्यून ( Canarium comim une, Jinn.)-ले० । बाइस डी कोलोफेन (Boisde colophane )-फ्रां० । एलीमाइ-पू० भा० । कानारि-मल० । बदामी-जावा । कग्गली मर, कग्गली बीज, सम्बाणी, जावा बदामी यौनी-कना०। बादाम जावी-हिं०। मन्शिम -अ०। महारुख वर्ग नॉट ऑफिशल (Not official) ( N.O. Burserracece., or amyridaceae & simarubacea). उत्पत्ति-स्थान-मलया आर्चीपेलेगो, पूर्वी भारतीय द्वीपसमुदाय, पेनँग, मलया, ट्रावनकोर, दक्षिणी भारत में इसको कृषि की जाती है। इतिहास-रस्फियस ( Rumpheus ) के वर्णनानुसार यह सीराम और उसके आसपास के महाद्वीपों में होनेवाला एक विशाल वृक्ष है। जिससे इतनी अधिकता के साथ राल उत्पन्न होता है कि वह वृहत् टुकड़ों अथवा शंकाकार अश्रु रूप में धड़ तथा मुख्य शाखाओं से लटके रहते हैं । प्रारम्भ में यह श्वेत, तरल एवं चिपचिपा; किन्तु पश्चात् को यह पीताभायुक्त और मोमवत् गाढ़े हो जाते हैं। वह आमण्ड(बादाम)का भी वर्णन करते हैं और कहते हैं कि उसे कच्चा खाने से रेचन पाते हैं तथा अजीर्ण हो जाता है । स्प्रेङ्गल के विचारानुसार :श्रामण्ड इब्नसीना वर्णित मन्शिम है जो उनके वर्णनानुसार बतम प्रयोगांश-पत्र, पुष्प, बीज, त्वक् । प्रभाव तथा उपयोग-लोरीगे ( Loure. iro)के कथनानुसार उक्त वृक्ष की त्वचा (वा पत्र) रेचक, स्वेदक तथा मूत्रल है। चीनी लोग इसे जलोदर तथा प्रामवात में देते हैं। पुष्प विष्ठावत् गंध के लिए प्रसिद्ध है । (डाइमॉक) इसके बीज तैलीय होते हैं और जब इसे असावधानी से निगल लिया जाता है तो उलेश जनित होता तथा शिर चकराने लगता है। ई० मे० प्लां । For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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