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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अरण्यवाताद किसी में) अत्यन्त लाभ हुआ । ५ बुद उक्त तैल तथा उतना ही पिथांस वसा Pythons fat) इन दोनों को मिलाकर तथा एक एक बूंद दैनिक तैल की मात्रा बढ़ाते हुए उक्त मिश्रण का उस समय पर्यन्त मांसांतर अन्तःक्षेप करें, जिसमें मात्रा ३० वा ४० बूँद हो जाए। किसी रोगी को बीज की गिरी पिसी हुई, नारिकेल तैल, सोंठ तथा गुड़ (Jaggery ) द्वारा निर्मित लड्डु . भी दिया गया । इसका तेल १० बूंद की मात्रा में कलेवा से १ घंटा पूर्व तथा पाक २० ग्रेन ( १० रत्ती ) की मात्रा में संध्या काल में दिया गया । इस प्रागुक्त चिकित्सा से पूर्व विशुद्ध विचूर्णित जयपाल बीज का ८ से १० दिवस पर्यन्त रेचन दिया गया । उपर्युक चिकित्सा के अतिरिक्त किसी किसी रोगीको सप्ताह में २ बार सोडियम हाइड नोका पेट - घोल ( २ घन शतांश मीटर ) का त्वक्स्थ अन्तः क्षेप किया गया | परिणाम निम्न हुआ - "जो कुछ मैं ने देखा उसमें सन्देह नहीं कि अरण्यवाताद ( H. Inebrians कुष्ठ की घृणायुक दशाओं के सुधारने के लिए एक शक्तिमान औषध है ।" कलकत्ता के वैज्ञानिक अन्वेषक डॉक्टर सुधामय घोश अक्टूबर मास सन् १९२० के इण्डियन जर्नल ऑफ मेडिकल रीसर्च में लिखते हैं कि कुष्ठ की चिकित्सा में हाइड्नोकार्पिकाल का सोडियम साल्ट अत्यन्त गुणदायक एवं उपयुक्त पाया गया । उनका कथन है कि श्ररण्यवाताद ( Hydnocarpus Wightiana) तथा लघु कवटी ( H. Veneata) द्वारा प्राप्त तैल, चॉलमगरा तैल की अपेक्षा अधिक सुलभ है। चॉलमृगरा तैलसे तुलना करने पर ५-५ प्रतिशत के स्थान में उनमें अधिक ( १० प्रतिशत ) हाइड्नोकार्पिकाम्ल वर्तमान होता है । स्तु, मितव्ययता के विचार से कुष्ठ चिकित्सा में उनका उपयोग योग्य प्रतीत होता | यक्ष्मा, छिलका युक्र विस्फोटक, कंडमाला के ग्रंथिकों, हठीले स्वग्रोगों यथा कंडू, रक्काभायुक्त विस्फोटक ( Lichen ), रकसा ( Prurigo) ५८३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्य वाताद तथा उपदंश मूलक त्वग्ररोगों पर उम्र तैल का अभ्यंग करते हैं । दुर्गन्धित ( पूतिगंध युक्त ) स्रावों में विशेषतया प्रसव के पश्चात् योनि शोधन रूप से योनि में तथा पूयमेह में इसके बीज के शीत कषाय का मूत्रमार्ग में पिचकारी करते हैं । सुश्रुत महाराज स्वरचित सुश्रुत संहिता नामक प्रामाणिक संस्कृत ग्रंथ में लिखते हैं कि कुष्ट रोग में खदिर क्वाथ के साथ चॉवलमूगरा तैलके सेवन करने से इसकी गुणदायक शक्ति अधिक हो जाती है । यदि यह सत्य है तो चालमूग्रिकाम्ल खदिरोल ( Catechol ) के साथ, जो उसका प्रभावात्मक सत्व है, सम्मिलित कर परीक्षा की जा सकती है । कहा जाता है कि डॉक्टर उन्ना ( Unna ) ने पाइरोगयलोल का, जो खदिरोल के बहुत समान है, श्रोषिद ( Oxide ) रूप में कुष्ठ रोग में सफलतापूर्ण उपयोग किया । कुष्ठरोग की आयुर्वेदिक चिकित्सा में चीलमूगरा तैल तथा गोमूत्र दोनों श्रन्तः एवं वहिर रूप से उपयोग में आते हैं। इसके विषय में आधुनिक सर्वश्रेष्ठ भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र घोश महोदय लिखते हैं कि सम्भवत: तैल के अम्लों का मूत्र के सैन्धजम् ( Sodium ) तथा अमोनियम आदि लवणों से सम्पर्क होने पर कुछ क्षारीय लवण बनजाते हैं और विलेय होने के कारण ये रोगी के रक्त द्वारा समस्त शरीर में व्याप्त हो जाते हैं तथा चीलमूगरराम्ल के विलेय लवणों की तरह प्रभाव करते हैं । (इ० मे० मे०) अश्व के वर्षाती नामक रोग में यह तैल श्रौषध रूप से प्रयुक्त होता है । (२) जंगली बादाम - हिं०, बस्ब० मह० | वाइल्ड आमण्ड ( Wild almond ), पून ट्री (Poon tree. ) - इं० । स्टरक्युलिया फीटिडा ( Sterculia Foetida, Linn. ) - ले० । पून- बम्ब० । कुड़प डुक्कु, पिनारी, कुदुरई- पुडुकी, कुछ फुक्कु, पिनारी ( - ) मरम्- ता० । गुरपू बादाम - ते० । पिनारी मर, भाटला-कना० । पोट्ट-कवलम.. For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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