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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकरकरा अकरकरा ऑफिशल प्रिपेयरेशञ्ज (ए० मे० मे०)टिङ्कचूरा पाइरोधाई ( Tinctura Pyrethri)-ले० । टिक्चर ऑफ़ पाइरीथन ( Tincture of Pyrethrum )-01 अकरकरासव-हि। निर्माणविधि-पाइरीथम की जड़का ४०नं० का चूर्ण ४ श्राउन्स अलकुहॉल (७०%) श्रावश्यकतानुसार । चूर्ण को ३ फ्लुइड ग्राउन्स अल्कहॉल में तर करके पकॉलेशन द्वारा एक पाइन्ट टिंक्चर तय्यार कर लें। प्रयोग-लालास्त्राव हेतु इसका स्थानिक उपयोग होता है। यह दाँतके दर्द,गठिया,अपस्मार, पक्षाघात, कफवात, तोतलापन और ज्वर तथा अनेक अन्य रोगों में लाभ पहुंचाता है। मात्रा-३॥ मा० । अहित-फुफ्फुस को। दर्पनाशक-कतीरा और मुनक्का । गुणधर्म तथा उपयोग आयुर्वेद को दृष्टि से-अकरकरा उदणवीर्यः | कटुक तथा बलकारक है, तथा प्रतिश्याय शोथ एवं बात का नाश करता है । वृ०नि० र० । वैद्यकीय व्यवहार भावप्रकाश-फिरंग रोग में-विशुद्ध-पारद श्राधा तोला, खदिरचूर्ण आधा तोला, अकरकरा चूर्ण १ तोला, मधु १॥ तोला, इनको एकत्र मर्दन कर वटिका प्रस्तुत करें। इसमें से प्रातःकाल १-१ वटी जल के साथ सेवन करने से फिरंग रोग (Syphilis) नष्ट होता है। यूनानो एवं नव्यमत-अकरकरा को चवाने से प्रथम दाह प्रतीत होता है; तत्पश्चात् शीघ्र झुनझुनाहट एवं सनसनाहट का ज्ञान होता तथा अधिक मात्रा में लाला की उत्पत्ति होती है। क्योंकि मौखिकी धमनी बोधतन्तु तथा लालाग्रंथि पर इसका उत्तेजक प्रभाव होता है। परन्तु थोड़ी देर पश्चात नाड़ियाँ शिथिल होजाती हैं। अस्तु, यह एक सशक लालानिस्सारक ( पावफुल स्यालेगॉग ) तथा किञ्चित् अवसन्नताजनक (अनस्थेटिक) है । उक्त प्रभावों के कारण | इसको दन्तपीड़ा, कच्चा लटकने (रीलैक्स्ड यूवुला) और कण्ठशोथ (सोरथोट) में मंजन गरड्रप प्रभति रूप से व्यवहार में लाते हैं। दन्तपीड़ा में अकरकरा को विकृत दाँत के नीचे रखने तथा चबाने से अथवा इसका टिंकुचर तथा टिंकचर प्रायोडीन दोनों समभाग सम्मिलित कर इसमें जरा सी हई तर करके पीड़ा युक दन्त में रखने से वेदना शमन होती है। २ श्राउंस (१ छं.) जल में एक डाल (३॥। माशा) इसका टिंक्चर मिलाकर इसका गंडूब करते हैं। डॉक्टर रॉय इसको योपापस्मार (ग्लोबस हिस्टैरिकस) में गुणदायी बताते हैं। (ए. से० मे०) । यूनानो ग्रन्थकार-इसे तीसरी कता के अन्त में और चतुर्थ कक्षा तक रूक्ष मानते हैं। परन्तु कोई कोई तीसरी और चतुर्थ कक्षा में शीतल मानते हैं। देह में जो सुहा ( रुधिर अादि को गाँठ) पड़ जाता है उसको खोलता, जस्तक को दुष्ट मल से शुद्ध करता तथा मस्तक के अवयव तथा कफ आदि को निस्संदेह चमक (जिला) देता है। अर्दित (लाघा), पज्ञाघात, कफवात, पीड़ा के साथ गर्दन का जकड़ जाना, जोड़ों का ढीला होना, तोतलापन, छाती, दाँत और संधि वेदना, गृध्रसी, जलंधर, पसीना और ज्वर को दर करता,शीतल प्रकृति वाले की इन्द्री की शक्रि को तथा स्तनों में दृध को बढ़ाता, खुलकर पेशाब लाने को व स्त्रियों के प्राव को पतला तथा गाढ़ा लेप करने से लाभ पहुँचाता है । जनक रंग, संधि के रोग, वाततन्तु ( पुढे) के, मुख के और छाती के रोग में अकरकरा को जैतून तेल में पीसकर मर्दन करने से लाभ होता है और कुबड़ापन, सुलवात, या ढीलेपन को, अवयवों के पुराने रोगों को भी पूर्वाक उपयोग गुणदायक होता है। यदि अकरकरा के क्वाथको गरम गरम मस्तक पर लेप और तालू पर मर्दन करें तो मस्तक को गरम कर नज़ले को नष्ट करता है। यदि इसे मस्तगी या कसैली वस्तु के साथ चटाएँ तो वह मृगी रोग, जो दृषित दोषों से प्रकट हुआ है, For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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