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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अकरकरा www.kobatirth.org जिसका वर्णन दोसकरीदूस ने किया है, और द्वितीय पाश्चात्य जो अफ़रीका और पाश्चात्य देश में उत्पन्न होता है । उक्त वनस्पति की प्रकृति, पत्र, शाखा और पुष्प श्वेतपुष्षीय बाबूना कबीर के समान होते हैं, पर उसके ( अकरकरा के ) पुष पीत वर्ण के होते हैं। इसी की जड़ को अकरकरा और फ़ारसी में पर्वतीय तखूंन कहते हैं । को अाकों का उक्त वर्णन बिल्कुल सत्य है । क्योंकि पश्चिमी अकरकरा वास्तव में स्पेनीय बाबूना की जड़ है जिसका वानस्पतिक नाम एन्थेमस पाइरीश्रम (Anthemis Pyrethrum) श्रर्थात् आग्नेय बाबूना या स्पेनिश केमोमाइल (Spanish Chamomile) अर्थात् स्पेनीय बाबूना है । और इसी की जड़ हमारा उपर्युक्त अकरकरा है जिसका वर्णन हो रहा है । कोई कोई बच को ही अकरकरा कहते हैं । परन्तु अकरकरा और बच वस्तुतः दो भिन्न-भिन्न वस्तुएं हैं। वानस्पतिक वर्णन - यह अरब और भारतवर्षकी प्रसिद्ध वृटी है ( यह बङ्गाल और मिश्र में भी उत्पन्न होती है ) । इसके छोटे छोटे तुप चातुर्मास की पहिली वर्षा होते ही पर्वती भूमि में उत्पन्न होते हैं । इसकी शाखाएं, पत्र और पुष्प सफ़ेद बाबूने के सदरा होते हैं, परन्तु डण्डल पोली होती है । गुजरात और महाराष्ट्र देश में इसकी डण्डी का प्रचार और साग बनाते हैं। इसमें सोचा के सहरा बीज आते हैं । डाली रोंगटेदार और पृथ्वी पर फैली हुई होती है तथा एक जड़ में से निकल कर कई होजाती है । उस डाली के ऊपर गोल गुच्छेदार छत्री के आकार का, किन्तु बाबूने से विपरीत पीले रंग का फूल होता है । डाली खड़ी खड़ी और पुष्प - पटल ( Petals ) सुद होते हैं। इसकी जड़ श्रौषध कार्य में श्राती है । ये सीधे सीधे टुकड़े, जिन पर कोई रेशा नहीं लगा होता, ३-४ इंच प्रर्थात् एक वालिस्त लम्बे और आधे से पौन इंच मोटे बेलनाकार गोल होते हैं। ऊपर के किनारे पर प्रायः बे रङ्ग रोमों की एक चोटी सी होती है । वारा भाग धूसर व का Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकरकरा से तथा झुर्रीदार होता है। इसको जहाँ से तोड़ें वहीं टूट जाती है। गंध-विशेष प्रकारकी । स्वाद-इस जड़के खाने से गरमी मालूम होती है, चरपरी लगती और जिह्वा जलने लगती है, यही इसकी मुख्य परीक्षा है । इसको चबाने से मुँह से लालासाव होने लगता है और सम्पूर्ण मुख एवं कंड में चुनचुनाहट और कांटे से चुभते मालूम होते हैं । इसकी जड़ भारी ( वज़नदार ) और तोड़ने पर भीतर से सफेद होती है। इसमें शीघ्र कीड़े लग जाया करते हैं । परीक्षा-प्रकरकरा अरण्य (जंगली) - कासनी की जड़के सहरा होता है; किन्तु यह ( कासनी) तिक एवं काले रङ्ग की होती है । रसायनिक संगठन - इसमें १-एक स्फटिकवत् अल्कलॉइड ( तारीयसत्व ) श्राकर कर्भीन ( Pyrethrine ), २- एक रेज़िन ( राल ) और ३--दो स्थायी ( Fixed Oils ) तथा उड़नशील तैल होते हैं । प्रभाव -- सशक लालानिस्सारक, प्रदाहजनक और कामोद्दीपक | औषध निर्माण - यौगिक चूर्ण, वटिकाएँ और कल्क । ( १ ) अकरकरा ४ भाग, इन्द्रायन २ भाग, नौसादर ३ भाग, कृष्णजीरक २ भाग, कुटकी ४ भाग और कालीमिर्च ४ भाग; इन सबको मिला चूर्ण प्रस्तुत करें । अपस्मार में इसको नस्य रूप से व्यवहार में लाएँ । ( २ ) अकरकरा ४ भाग, जायफल ३ भाग; लौंग २ भाग, दालचीनी ३ भाग; पिप्पलीमूल; केशर २ भाग; अफीन १ भाग; भंग ४ भाग; मुलेठी ४ भाग; मदार मूल स्वक् ५ भाग ; वायविडङ्ग ३ भाग और शहद २ भाग; सब को चूर्ण कर वटिका प्रस्तुत करें। मात्रा — आधी से २ ॥ रती 1 गुण-बच्चों के चिड़चिड़ापन, अनिद्रा, सवेदन दंतोद्भेद, प्रतीसार, उदरशूल तथा वमन के लिए गुणदायक है। For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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