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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपराजिता ३०१ अपराजिता जलोदर एवं पलोहा व यकृत वृद्धि मेंअपराजिता की जड़, शंखिनी, दन्तीमूल और नीलिनी । इनको समभाग लेकर जल के साथ इमलशनवत् प्रस्तुत करें और गोमूत्र के साथ सेवन करें। वक्तव्य सुश्रत में दर्वीकर सर्प की चिकित्सा में अन्य द्रव्यों के साथ अपराजिता का प्रयोग दिखाई देता है, यथा-'श्वेत गिरिह वा कणिही सिताच' (क०५ अ०) । सुश्रुतोक्त शोथ एवं उन्माद की चिकित्सामें अपराजिताका उल्लेख नहीं है। सुश्रुत के सूत्र स्थान के ३६ वें अध्याय के वामक द्रव्यों की तालिकामें अपराजिता का नाम नहीं पाया है। किंतु शिरोविरेचन वर्ग की ओपधियों में अपराजिता का उल्लेख है । यथा "करवागदीनामांतानां मूलानि" वाक्य में अपराजिता के मूल को शिरोविरेचक माना गया है। चरकोक वान्तिकर द्रव्यों में अपराजिता का पाठ नहीं है (वि०८ प्र०)। चरक में सुश्रुतवत् शिरोविरेचन द्रव्यों के वर्ग में इसका पाठ पाया है। (सू० ४ अ०)। चरकोक शोथ चिकित्सा में अपराजिता का प्रयोग नहीं दिखाई देता। किंतु उन्माद चिकित्सा में व्यांतर के साथ इसका प्रयोग पाया है। चक्रदत्त के शोथ और शूल की चिकित्सा में . अपराजिता का प्रयोग नहीं है। नव्यमत डिमक महोदय के कथनानुसार विरेचक व मूत्रल गुणों के कारण इसको माज़रियूने हिंदी ( Indian mezereon ) नाम से अभिहित किया गया है। किंतु यहाँ पर यह बतला देना श्राव श्यक प्रतीत होता है कि माज़रियून उदरीय शोथको • दूर करने के लिए व्यवहार में लाया जाता है। और यह फार्माकोपिया वर्णित माज़रियन साथ पुरातन कास में कराध्य (कफनिस्सारक) रूप से व्यवहार में पाता है। इससे उक्लेश (मतली) तथा वमन जनित होता है। अर्द्धावभेदक में श्वेतापराजिता की जड़ का रस नकुत्रों द्वारा फूंका जाता है। एन्सली विवसिषाजननार्थ किंवा वामक प्रभाव के लिए धु'डिकास वा स्वरन्नी कास (Croup) में अपराजिता की जड़ के उपयोग का वर्णन करते हैं। "बेंगाल डिस्पेंसेटरी" नामक पुस्तक के रचयिता बहुत से प्रयोगों के पश्चात् अपराजिता के वांतिकरत्व गुण को अस्वीकार करते हैं । वे लिखते हैं कि अपराजिता की जड़ का " एल्कोहलिक एक्स. ट्रैक्ट" ५ से १० ग्रेन की मात्रा में शीघ्र विरेचक सिद्ध हुअा। किंतु इसके सेवन से रोगी के पेट में दर्द (ऐंठन ) एवं बारम्बार मल त्यागने की इच्छा होती है और बहुत वेदना के बाद थोड़ा मल निकलता है । सुतरां वे इसे व्यवहार करने का परामर्श नहीं देते। सर्व प्रथम इसका बीज टर्नेटी ( Ternate) द्वीप से जो मलक्काद्वीपों में से एक है, इंगलैंड में लाया गया। अस्तु, इस पौधे का यह प्रधान नाम हुश्रा । हेंस (Haines ) इसके ( नीलापराजिता पुष्प) टिंकचर को लिटमस (क्षार द्योतक) की प्रतिनिधि बतलाते हैं। (फा० इं.. खंड, ४५६--४६०)। डॉ० आर० एन० खोरी-अपराजिता की जड़, स्निग्ध, मूत्रकारक एवं मृदुरेचक है और पुरातन कास, जलोदर, शोथ एवं प्लीहा व यकृत विवृद्धि तथा ज्वर और स्वरधनी कास (Croup) में व्यवहृत होती है। अपराजिता की जह का शीत कषाय स्निग्ध (Demulcent) रूप से वस्ति तथा मूत्र प्रणालीस्थ क्षोभ और कास में व्यवहार किया जाता है। अर्द्धावभेदक अर्थात् अधकपाली रोग में इसकी ताजी जड़ के रस का नस्य देते हैं। इसका ऐक्सट्रैक्ट शीघ्र रेचक तथा कालादाना, गुलबास बीज और जलापा की उत्तम प्रतिनिधि है । (मेटिरिया मेडिका प्रॉफ इंडिया २ य खंड २०६ पृ०)। ... वे और भी लिखते हैं कि कोंकण में इसकी जड़ का रस दो तोला की मात्रा में शीतल दुग्ध के For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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