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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपराजिता. ३७६, अपराजिता ... वानस्पतिक-वर्णन --- अपराजिता एक प्रकार की वृताश्रित बहुवर्षीय लता है । प्रायः शोभार्थ | इसे उद्यानों में लगाते हैं। यह बहुशाखी एवं । शुपमय होती है । मूल किञ्चिद् गूदादार गावदुमी | शाखायुक्त होता है । प्रकाण्ड अनेक दाहिने से बाएँ को लिपटे हुए छोटे पौधों में मृदुलोमयुक्त Pabescent) होते हैं । पत्र छोटे प्रायः गोल वा अंडाकार, विषम पंजाकार,एक सींक की दोनों श्रोर जोड़े जोड़े होते हैं। प्रायः कुल २.-३ किसी किसी में ४ जोड़े होते हैं, किंतु उनके तिरेपर अर्थात् अग्रभाग पर एक अयुग्म पत्र होता है । पुष्प बड़े, श्वेत वा नीले ( वा रक्त), डंठलयुक्त ( सवृन्त) उलटे प्रैक्टियोलेट होते हैं। पुष्पवृन्त लघु, लगभग चौथाई इञ्च लम्बा, कक्षीय, अकेला एक पुष्पयुक्त होता है। प्रक्टिोलस किञ्चिद् गोल, पुष्प-वाह्य-कोष के अाधार से संलग्न होते हैं। पुष्प-वाह्य-कोष पुष्पाभ्यन्तर कोष का लम्बा, पंचशिखर युक, विषम, स्थाई, बीज-कोषाधः होता है। पुष्पाभ्यन्तर-कोष तितलीस्वरूप, वृहदोर्ध्व पटल ( Vexillum.) बड़ा, सिरा गोलाकार शिखरयुक्त; वहिः, नीला, (मध्यभाग पोलाभायुक्त स्वेतवर्ण का), पक्ष (Ale) अंडाकार अत्यन्त पतला और संकुचित डंउलयुक्त, तरणिका (Keel ) कुछ कुछ बूट के आकार के दो पतले सूत्रवत् डंठल से युक्र होते हैं। नरतंतु वा २. पुव पराग केशर या पराग की तीली (Stamens)५ से १० वा इससे भी अधिक, दो स्थानों में स्थित ( Diadelphous) होते हैं जिनमें एक पृथक रहता है और शेष तन्तुओं द्वारा आपस में मिले रहते एवं बीजकोषाधः होते हैं। परागकोष वा पराग की घुण्डी ( Anthers) बहुत सूक्ष्म, गोलाकार और श्वेत होती है। नारितंतु वा गर्भकेशर (Style ) साधारण, परागकेशर की अपेक्षा लंबे, किञ्चित् चक्र, सिरेपर परिविस्तृत होते हैं। शिम्बी वा छीमी (Legume)२ से ३ इंच लम्बी और चौथाई ..इंच चौड़ी, चिपटी, सीधी, कुछ कुछ लोमश, द्विकपाटीय (दो छिलके युक्त), एक कोष :युक्त (पर कोष की दीवारों से बहुत से भागों में | विभाजित होती हैं, जिनमें से प्रत्येक में एक एक बीज होता है ) और बहुबीजयुक्त होता है। बोज श्रायताकार इंच लम्बे, चिकने, कृष्ण वा हरिताभायुक्त धूसर वा धूसरवर्ण के होते हैं। यह सदा पुष्पित रहती है। ___ पुष्पभेद से यह दो प्रकार की होती है-(१) वह जिसमें सफेद फूल लगते हैं श्वेतापराजिता श्वेतगिरिकर्णिका । विष्णुकान्ता । सफ़ेद कोयल और (२) वह जिसमें नीले फूल आते हैं नीला. पराजिता, नील गिरिकर्णिका, कृष्णक्रांता, नीली कोयल आदि नामों से संबोधित की जाती है । नीलापराजिता का एक और उपभेद होता है जिसमें दोहरे फूल लगते हैं। नोट-इन विभिन्न प्रकार के अपराजिता के बीजो के प्रभावमें कोई प्रकट भेद नहीं और यदि कुछ होता है तो वह इसकी सफेद जातिके बीजमें हो सकता है। किंतु इनमें वह बीज जो दूसरे की अपेक्षा अधिक गोल एवं मोटे होते हैं, प्रभाव में अधिकबलशाली सिद्ध होंगे पुनः चाहे वे किसी जातिके हों। रासायनिक संगठन-मूलत्वक्-में श्वेतसार, कषायिन और राल, बीजमें एक स्थिर तैल, एक तिक राल ( जो इसका प्रभावात्मक सत्व है। ), कषायाम्ल ( Tannic acid), द्राक्षौज (एक हलका धूसर वर्ण का राल ) और भस्म (६ प्रतिशत ) प्रभृति होते हैं। बीज वामस्वक् टूट जाने वाला (भंगुर ) होता है । इसमें एक दौल होता है जो कणदार श्वेतसार से पूर्ण होता है। प्रयोगांरा-जड़ की छाल, बीज और पन्न । औषध-निर्माण-(१) बीज का अमिश्रित चूर्ण-Simple Powder of Clitorea Seeds ( Pulvis Clitorece 8implex). निर्माण-विधि - साधारण तौर पर चूर्ण कर बारीक चलनी या कपड़े से छानकर बोतल में भरकर सुरक्षित रक्खें । मात्रा-१ से १॥ ड्राम तक ( २.४ पाना)। गुण-इतनी मात्रा से ५ या ६ दस्त खुलकर For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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