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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अपद ३७६ जन्य हेतु ज्वर के हेतु पित्त को प्रकुपित करते हैं, जिससे दाह, शैत्य, शिरःशूल और कोष्ठ की वृद्धि, तीव्र वेदना, खुजली, मल का अधिक निकलना अथवा उसका श्रत्यन्त बँध जाना श्रादि लक्षण पथ्य जन्य ज्वर में होते हैं । निघ० २ भा० ज्व० । वै० श्रपद apada-हिं० वि० श्रपद: apadah - सं० त्रि० } पादहीन, पंगु, कर्मच्युत (Lame)। - पु० बिना पैर के रेंगने वाले जंतु । जैसे, (१) सर्प, केचुश्रा, जोंक दि । ( २ ) सर्प ( Snake ) । -सं०स्त्री० श्रपदरुहा apada-ruhá पदरोहिणी apadarohini चन्दा । वांदरा - बं० । वादांगुल-म० । व० निघ० । A parasite plant (Epidendrum tessellatum. ) अपदस्थ apadastha - हिं० वि० कर्मच्युत, पदच्युत । अपदारथ apadáratha - हिं० पु० योग्य वस्तु । अपदेवता apadevata - सं० स्त्री०, हिं० सज्ञा पु० प्रेत, पिशाचादि । दुष्ट देव | दैत्य | राक्षस असुर । अपदेशः apadeshah--सं० (हिं० संज्ञा ) पु० "तेन कारणेनेत्यपदेश' अर्थात् इस कारण से यह होता है इसे "अपदेश " कहते हैं । जैसे कहते हैं कि मीठा खाने से कफ बढ़ता है अर्थात् कफ वृद्धि का हेतु मधुर रस है । सु० उ० ६५ श्र० १३ श्लो० । अपद्रव्य apadravya--हिं० संज्ञा पुं० [सं०] | निकृष्ट वस्तु | बुरी चीज़ । कुद्रव्य । कुवस्तु ! अपध्वंसक apadhvansaka - हिं० वि० ( १ ) घिनौना । ( २ ) नाश करने वाला, क्षयकारी । अपनयन apanayana - हिं० संज्ञा पु ं० [सं०] [वि० अपनीत ] ( १ ) दूर करना । हटाना । (२) स्थानांतरित करना । एक स्थान से दूसरे स्थान पर लेजाना । ( ३ ) खंडन | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपरतन्त्र अपनीत apanita - हिं० वि० [सं०] दूर किया हुना | हटाया हुआ | निकाला हुआ । अपश्य apabashya - हिं० वि० पु० श्रपबस-श apabasa, sha न्मुखी ( Independent )। स्वाधीन, म अपबाहुकः apabáhukah - सं० पु० अपबाहुक apabahuka - हिं० संज्ञा पु ं० एक रोग जिसमें बाहुकी नसें मारी जाती हैं और बाहु बेकाम हो जाता है । अपवाहुक, वात कफ जन्य श्रंसगत वात व्याधि, भुजस्तम्भ रोग विशेष । लक्षण - कंधे अथवा खत्रों में रहने वाली वायु खवों के बंधन को सुखा देती है। उस के बंधन के सूखने से अत्यंत वेदनावाला अपवाहुक रोग उत्पन्न होता है । मा० नि० । बाहु में रहने वाली वायु उस में रहने वाली शिराओं को संकुचित करके अपबाहुक रोग को उत्पन्न करती है । भा० प्र० २ ख० । चिकित्सा इस रोग में नस्य तथा भोजन के पश्चात् स्नेह पान हित है । वां० चि० श्र० २० । अपभ्रंश apabhransha - हिं० पु० बिगड़ा शब्द | ( Corruption, Common or vulgur talk ). श्रपमुबु apamumúrshu - सं० हिं० पु० जल में डूब कर मरणोन्मुख हुआ रोगी । अपर apara - हि० वि० [सं०] [स्त्री० ( १ ) जो पर न हो, पहिला, पूर्व का, पिछला, जिससे कोई पर न हो । ( २ ) अन्य दूसरा, भिन्न । मे० रत्रिक० । परा ] अपरपिण्डतैलम् aparapinda-tail@m--सं० क्ली० बला ( खिरेटी ) पृष्टपर्णी, गङ्गेरन, गिलोय, श्रौर शतावर । इनके कल्क तथा काथ से सिद्ध किए हुए तैल के अनुवासन ( पिच, कारी ) लेने से प्रबल वातरत्र का नाश होता है । भा० प्र० मध्य खण्ड २ वातरक्त - चि० । अपरतंत्र aparatantra - हिं० वि० [सं०] जो परतंत्र वा परवश न हो, स्वतंत्र, स्वाधीन, श्राज्ञाद । For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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