SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मोसून ० लक्षण - एनीथोल की श्वेत रवेदार डलियाँ होती हैं जिनसे अनीसून की तीव्र सुगन्धि श्राती । स्वाद - किञ्चिन्मधुर । यह ६८ फारनहाइट के उत्ताप पर पिघल जाता है । द्रव रूप में यह वर्णरहित होता है और इसमें से सूर्यरश्मि astभूत होकर गुज़रती है । ३२३ विलेयता -- यह एक भाग लगभग ३ भाग ऐलकोहल (१०% ) में विलेय होता है । मात्रा-१ से २ बुंद= (०६ से १२ घन शतांश मीटर ) । अनसून के प्रभाव तथा उपयोग यूनानी मतानुसार - ( १ ) यह वृक्क, वस्ति, जरायु एवं प्लीहा व यकृत् के अवरोधों का उद्घाटक है । क्योंकि यह चरपरा और तेज है और इनका कर्म रोधोद्घाटन है । ( २ ) अपने संशोधक, विज्ञायक और उत्तापजनक प्रभाव के कारण यह वायुनिस्सारक है, विशेषकर जब यह भुना हुआ हो । क्योंकि भूनने से इसकी श्रार्द्रता कम हो जाती है एवं इसकी तीक्ष्णता बढ़ जाती है । ( ३ ) मुख तथा हस्तपाद के मंदशोथ के लिए लाभदायक है। क्योंकि यह प्रवर्त्तनकर्त्ता है और अवरोधउद्घाटन एवं किञ्चित् संकोच द्वारा यकृत को शक्ति प्रदान करता है । ( ४ ) नेत्र में लगाने से पुरातन सबल रोग को लाभदायक है । क्योंकि यह उसके माछाको लय करता है । (५) शिरः शूल होता तथा सिर चकराता हो, ऐसी दशा में इसका नस्य एवं धूपन ( धूनी) अत्यन्त गुणदायक है । क्योंकि यह उनके माहों को लय करता है । (६) यदि इसको गुल रोगन में खरल करके कान में डालें तो अपने थोड़े संकोच के कारण ठोकर या चोट के द्वारा उत्पन्न हुए कर्ण क्षतको अच्छा करता है और विलायक शक्ति से कर्णशूल को दूर करता है । (७) रोध उद्घाटन तथा उष्मा बाहुल्य से मूत्र, श्राव और जरायुस्थ आर्द्रता को रेचक है । (८) श्लेष्म तृषा को प्रशमन करता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनीसुभ क्योंकि यह श्लेष्मा को पिघलाता एवं लय करता है । ( 8 ) स्तन्यजनक एवं शुक्रवर्द्धक है। क्योंकि श्राहारीय पथों को मुष्क तथा स्तन की ओर उद्घाटित कर देता है । (१०) विषदोषघ्न है । क्योंकि मूत्र तथा श्रार्त्तव के प्रवर्तन द्वारा स्रोतों को विष से शुद्ध कर देता है । ११ ) प्रायः यह उदरीय विष्टंभ उत्पन्न कर देता है । क्योंकि यह रुचताजनक एवं प्रवर्तक है और हार को श्रवयवों की ओर प्रविष्ट करा देता है जिससे प्रांत्र में रूक्षता उत्पन्न हो जाती एवं ब् हो जाता है । (नफो० ) नव्यमत:---- - एलोपैथिक मेडिरिया मेडिका( एनियम तथा एनिसम), डिल ( सोभा, शतपुष्प ), एनिस ( अनीसून ), कोरिएण्डर (धान्यक ), फेनेल ( सौंफ मधुरिका ) और कारवी अर्थात् करावे ( Caraway ) प्रभाव में समान हैं । ये सशक्र पचननिचारक हैं । अधिक मात्रा में से सर्वाङ्गीय उत्तेजक हैं तथा विरेचक औषधों के ऐंठन के निवारणार्थ, वायुनिस्सारक रूप से और बालकों के उदरशूल एवं आध्मानजन्य पीड़ा के लिए इनका व्यवहार किया जाता है । इस हेतु श्रनीसून अधिकतर उपयोग में आता है। सम्भवतः इन अन्तिम दशानों में ये परावत्तित क्रिया द्वारा प्रक्षेपहर प्रभाव करते हैं । थोड़ी मात्रा में इनसे श्रामाशयिक रस का और सम्भवतः अग्न्याशयिक रस का भी स्राव बढ़ जाता है । श्वास द्वारा निःसरित होते समय श्वासोच्छवास सम्बन्धी कलाओं को उतेजित कर इन सबका निर्बल कण्ठ्य ( श्लेष्मा निस्सारक ) प्रभाव होता है । पूर्ण ( वयस्क ) मात्रा में इनमें मन्द निद्राजनक शक्ति है । किन्तु, यदि इनको अन्तःक्षेप द्वारा सीधे रुधिराभिसरण में पहुँचाया जाए तो इनका सशक्त हृदयावसादक प्रभाव होता है । ( सर वि० हिटला ) For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy