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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भनार २६७ अनार एशिया ( अरब ईरान, अफगानिस्तान, बलूचि- स्तान, भारतवर्ष तथा जापान )। पश्चिम हिमालय और सुलेमान की पहाड़ियों पर यह वृक्ष श्राप से पाप उगता है। यह सम्पूर्ण भारतवर्ष में लगाया जाता है । काबुल कंधार के अनार प्रसिद्ध है। भारतीय अनार वैसे नहीं होते । _वानस्पतिक वर्णन-यह पेड़ १५-२० फुट ऊँचा और कुछ छतनार होता है । इसके तने की गोलाई ३--४ फुट होती है। माघ या फागुन में इसके नए पत्ते लगते हैं। इसके पत्ते टहनियों के आमने सामने लगे रहते हैं । यह कुछ लम्बे | नोकदार और सिरे पर गोलाई लिए होते हैं। इनके फूल की पंखड़ियाँ रक्रवर्ण की होती हैं। और फूल अधिक तर एकं एक स्थान पर लगते हैं । इसके फल की मध्य रेखा २ से ३॥ इञ्च | लम्बी होती है। इसके फूल हर मौसम में लगते' लेकिन चैत, वैशाख में बहुत लगते हैं। अषाढ़ से भादों तक फल पकते हैं। . रासायनिक संगठन वृक्ष एवं फलत्वक में २२ से २५ प्रतिशत कपायीन ( Tannin) होता है। वृक्ष मूल स्वक् में २० से २५ प्रतिशत प्युनिको टैनिक एसिड (दादिम-कषायि नाम्ज) मैनिट (Maunit), शर्करा, निर्यास, पेक्टीन, भस्म १५ प्रतिशत, एक प्रभावात्मक पैलीटिएरीन या प्युनीसीम ( अनारीन) नामक तरल धारीय सत्व होता है और तैलीय द्रव आइसो पैलीटिएरीन या प्राइसोप्युनीसीन (अनारीनवत् ) तथा मीथल पैलीटिएरीन व स्युडोपेलीटिएरीन (मिथ्या अनारीन ) नामक दो प्रभाव शून्य क्षारीय सत्व होते हैं । दाड़िम कपायाम्ल ( Punicotannic acid) को जब जलमिश्रित गंधकाम्ल (सल्फ्युरिक एसिड) में उबाला जाता है तब वह इलैजिक एसिड ( Ellagic acid ) और शर्करा में विलेय होता है। नोट-जड़ की छाल में यह सत्व अपेक्षाकृत अधिकतर होते हैं। विशेषतः क तथा श्वेतपुष्प वाले अनार में। प्रयोगांश-मूल त्वक, वृक्षस्वक, अपक्कफल, ३८ पवफल, बीज स्वरस, फलत्वक्, पुष्प, कलिकाएँ और पत्र। . . इतिहास-चरक के छर्दिनिग्रहण एवं श्रमहर वर्ग में दाडिमका पाठ पाया है और वहां इसे वमन नाशक एवं हृद्य लिखा है। सुश्रुत में भी अन र का वर्णन पाया है। तो भी इसकी जड़ की छाल के उपयोग का वर्णन किसी भी प्राचीन आयुर्वेदीय निघण्टु ग्रंथ में नहीं दिखाई देता । भावप्रकाश में इसकी जड़ को कृमिहर लिखा है। . : .... ... बकरात ( Hippocrates ) ने पोत्रासाइड नाम से अनार का वर्णन किया है। दीसकरीदूस (Dioscorides ) ने पराइपोप्रास के नाम से अनार की जड़ की छाल का "वर्णन किया है। इसको वे कृमियों को मारने एवं उनके निकालने के लिए सर्वोत्तम ख्याल करते थे। अस्तु आज भी इस औषध को उसी गुण के लिए व्यवहार में लाते हैं। इसलामा हकीम सङ्कोचक होने के कारण इसके पुष्प एवं फल स्वक् को विभिन्न प्रकार से उपयोग में लाने के अतिरिक वे इसके मूल स्वक् को जो इसका सर्वाधिक धारक भाग है, कद्दूदाना के लिए अमोघ भौषध होने की शिनारिस करते हैं। अनार का बीज प्रामाशय बलप्रद और गूदा हृदय एवं आमाशय बलप्रद ख्याल किया जाता है। दोसकरीदूस ( Dioscorides ) एवं प्राइनी ( Pliny ) के ग्रंथों में भी इसी प्रकार के वर्णन मिलते हैं । अत: ऐसा प्रतीत होता है कि अरब लोगों ने अनार के औषधीय गुण. धर्म का ज्ञान अपने पूर्वजों से प्राप्त किए । अनार की जड़ की छाल एवं फल का छिलका ये दोनों फार्माकोपिया ऑफ इंडिया में ऑफिशल अनार (फल) दाहिम फलम्, दादिमः सं० । अनार, दाइम, दामु-हिं० । प्युनिकाग्रेनेटम् Punica Gra. natum, Linn. (Fruit of Pomegr. For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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