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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनन्नास २८६ अनन्नास इनके ऊपर बहुत से छोटे छोटे कंटकमय पन होते हैं जिनको ताज कहते हैं । उन गावदुमी बालियों में बहुसंख्यक क्षुद्र नीले रंग के पुष्प पाते हैं । पुष्पाभ्यंतर कोष त्रिपटल । तीन पंखही युक्र) एवं पुष्पवाह्य कोष त्रिभाग युक्त होता है। पुष्पित होने के बाद ये क्रमशः मोटे और लम्बे होते जाते हैं और रस से भरे होते हैं। यह अंकुर पिंड नागरंग पीत वर्ण का एवम् खटमीठा स्वाद युक्र होता है। रासायनिक संगठन-व्युटिरेट ऑफ़ इथिल ( Butyrate of ethyl ) #1 garso भाग स्पिरिट ऑफ वाइन के साथ योजित करने से अनकास का एसस प्रस्तुत होता है। अनन्नास स्वरस में प्रोटीड-पाचक सन्धान (अभिषय) होता है । तीन फ्लुइड पाउंस यह स्वरस १० से १५ प्रेन धनीभूत ऐल्ब्युमीन को पचा देता है। क्षार तथा अम्लीय घोलों (विलयन ) में इसका समान और न्युट्रल ( उदासीन ) द्रवों में सर्वोत्तम प्रभाव होता है । स्वरस में एक भाँति का दधिप्रवर्तक सधान ( अभिषव ) होता है। भस्म में स्फुरिकाम्ल तथा गंधकाम्ल, चून मग्न, शैलिका, लौह और पांशु हरिद् एवं सैंधहरिद् श्रादि होते हैं। प्रयोगांश-पक वा अपक फल और पत्र । औषध-निर्माण-तैल, स्वरस का एसेंस और पत्र का ताजा रस । इतिहास, प्रभाव तथा उपयोग अमेरिका के दर्याप्त होने से पूर्व भारतीयों को अनन्नास का ज्ञान न था । सर्व प्रथम युरूप निवासियों को हर्नेडीज़ (१५१३ ) द्वारा इसका ज्ञान हुआ और सन् १५६४ ई० में पुर्तगाल निवासी ग्रैज़ील से इसको भारतवर्ष में लाए। अबुफ़ज़ल ने आईने अकबरी में इसका उल्लेख किया है । दार शकोह के लेखक ने भी इसका वर्णन किया है। रहीडी ( Rheede ) के कथनानुसार मालाबार में इसके पत्र को चावल के धोवन में उबाल कर इसमें ( Pulvis Baleari)| योजित कर जलोदरी को जल से मुक्रि प्राप्त करने के लिए व्यवहार कराते हैं। अपफ फल सिरका के साथ गर्भपात कराने तथा उदरस्थ श्राध्मान को दूर करने के लिए व्यवहार किया जाता है। मजनुल अद्वियह के लेखक मीर मुहम्मद हुसेन लिखते हैं-अनसास दो प्रकार का होता है-(१) साधारण और (२) क्षुद्र जो अत्यंत मधुर एवं सुस्वादु होता है। प्रकृति-सर्द व तर द्वितीय कक्षा में (किसी किसी के मत से १ कक्षा में उष्ण और २ कक्षा में तर है)। हानिकर्तासर्व व तर प्रकृति को, स्वर यंन तथा श्वासोच्छवास सम्बन्धी अवयवों को। दपं घन-लवण तथा आर्द्रक का मुरब्बा (किसी किसी ने शर्करा वा सोंठ का मुरब्बा लिखा है)। प्रतिनिधि-सेब या बिही प्रभृति । मुख्य कार्य-पित्त ( उष्ण) प्रकृतिको लाभप्रद है ( कफज प्रकृति को नहीं)। शर्बत की मात्रा-२ तो० से ५ तो० तक। गुण, कर्म, प्रयोग-अनन्नास पित्त की तीवणता का शामक और यकृत्, उष्ण प्रामाशय को शक्किप्रद एवं विलम्ब पाकी है। श्राहादकर्ता (हृद्य) और हृदय को बल प्रदान करता एवं मूर्छा को दूर करता है। उष्ण व रूक्ष प्रकृति वालों के लिए वल्य एवं हृध है। इसके शर्बत, मुरब्बा, मिठाई और चटनी आदि पदार्थ बनाए जाते हैं। इसके मीठे चावल भी पकते हैं और यह अत्युत्तम आहार है। इसकी शीतलता को कम करने के लिए इसके बारीक बारीक परत काट कर प्रथम उसको नमक के पानी से धोकर पुनः स्वच्छ जल से धोना चाहिए। फिर उस पर शर्करा एवं गुलाब जल छिड़क कर व्यवहार करना चाहिए। कहते हैं कि किंचित् साँठ का चूर्ण मिलाने से भी वह उत्तम हो जाता है। अनन्नास मस्तिष्क एवं प्रामाशय को बलप्रद और निर्बल तथा शीत प्रकृति को बल प्रदान करता है। म० अ० । तु०। नोट-मजन में अपक्क फल एवं उसके पत्र For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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