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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिकार अतिसार अत्यन्त अफरा हो, सूजन हो, अतिसार के उपद्रवयुक जिसकी गुदा पक गई हो और शरीर शीतल हो उसको वैद्य त्याग दे। और भी जो मनुष्य श्वाल, शूल तथा प्यास से पीड़ित हो, बल मांस हीन हो तथा ज्वर से पीड़ित हो उसका और विशेष कर वृद्ध रोगी का अतीसार नाश कर अतिसार निवृत्ति के लक्षण जिस मनुष्य के मलसे भिन्न मूत्र उतरे अर्थात् दोनों की क्रियाएँ पृथक पृथक हों, मल अलग उतरे और मूत्र अलग, शुद्ध अपानवायु खुले, अग्नि दीप्त और कोठा हलका हो उसको अतीसार से मुक्त जानना चाहिए। अतोसारको सामान्य चिकित्सा अतीसारी को सुखपूर्वक शय्या पर लिटाए रखें और उसके शरीर को गरम रखें। रोगारम्भ काल से २४ घंटे पश्चात् तक उसे किसी प्रकारका श्राहार न दें, प्रत्युत उपवास रूप लंधन कराएँ । यथा वाग्मट्टः अतीसारोहि भूयिष्ठं भवत्यामाशयान्वयः हत्वाग्नि वातजेऽप्यस्मात्प्राक तस्मिन्लंघन हितम् । वा० चि० अ०६ । अर्थात्-अग्नि को मन्द करके अतिसार रोग प्रामाशय में उत्पन्न होता है, इसलिए वातज अतिसार में भी प्रथम उपवास रूप लंघन देना हित है। अपि शब्द से कफादि जन्य अतिसार में भी लंघन हित है । प्राक् शब्द के प्रयोग से यह समझना चाहिए कि उत्तर काल में लंघन कराना हित नहीं है । - अपरञ्च यदि रोगी बलवान हो तभी लंघन भी कराना चाहिए । अन्यथा दुर्बलता की दशा में लघु पथ्य (पाचक तथा अग्निसंदीपक ) की व्यवस्था करनी चाहिए। अस्तु, केवल क्वथित कर शीतल किया हुश्रा जल, फाड़े हुए दूध का पानी तथा वच, अतीस, नागरमोथा, पित्तपापड़ा, नेग्रवाला, और सोंठ, इनमें से किसी एक के साथ पकाया हुश्रा पानी १ छं. की मात्रा में ३-३ घंटा पश्चात् रोगी को तृषा उत्पन्न होने पर देते रहें। २४ घंटे पश्चात् उपमहान परदतरह। २४ घट पश्चात् सुधा लगने पर उपयुक्त भोजन काल में उसको अधावण तरल आहार २-२ छ० की मात्रा में ३-३ घंटा के अन्तर से दें। हलके अन्न से रोगी की शीघ्र हो अन्न में रुचि बढ़ जाती है और उसकी जठराग्नि प्रदीप्त तथा देह बलिष्ट होता चला जाता है। अतः पका कर शीतल किया हुअा दूध उत्तम श्राहार है। उक दूध में ३ ग्रेन सोडियम् साइट्रेट प्रति १ छ. दूध में मिलाकर देना उपयोगी होता है। अथवा पावभर दूध में ३० बुंद मधुर चूर्णोदक (मीठा चूने का पानी ) मिलाकर देना लाभदायक है। यदि दूध से उदराध्मान हो तो दूध के स्थान में अरारोट या सागू (साबूदाना ) पका कर दें। पुनः मूंग के दाल का पानी, दाल भात, शोरबा चावल, खिचड़ी और दूध तथा पाव रोटी प्रभति भी दे सकते हैं। अतिसार रोगी को जल के स्थान में तक्र. पेया, तर्पण, सुरा और मधु यथा सात्म्य अर्थात् प्रकृति के अनुकूल व्यवहार कराएँ । पके केले को जल में भली भाँति मल छान कर पुनः किञ्चित् मिश्री मिला कर श्राहार के स्थान में व्यवहार कराते रहना अत्युपयोगी है। उसके आहार में ग्राही, अग्निसंदीपक और पाचन श्रोषधियों का समावेश होना अत्यावश्यक है । । उक्त प्रतीकारों द्वारा जव रोग शमन हो जाए तब रोगी को क्रमशः उसके पूर्व आहार पर ले आएँ । परन्तु, अधिक जल वा दुग्ध से परहेज रखें। मीठे अनार का स्वरस थोड़ी मिश्री मिलाकर देना रोगी के बल का रक्षक एवं प्रामाशय की क्षोभ का नाशक है। और किसी वस्तु को न देकर केवल इसको ही देते रहना पर्याप्त है। उपचार चिकित्सक को रोगी तथा रोग की दशा की भली प्रकार परीक्षा करने के पश्चात् खव सोच समझ कर ही किसी औषध की व्यवस्था करना उचित है। प्रारम्भ में ही किसी संग्राही औषध को देकर तत्क्षण दस्त बन्द कर देना उचित नही। यथा For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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