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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रतिसांस्या २४६ अतिसाम्या ati-sámya - सं० त्रो० मुलेठो की काली मुख वाली गुजाकी बेल | (Abrus precatorius )। बैं० श० । लता, अतिसारः ati-sárah- सं० पु० ) ( १ ) पर्पटक अतिसार atisára-हिं० संज्ञा पुं० -सं० | पित्तपाड़ा, पापा - हिं० । ( Olden landia_corymbosa ) ( २ ) स्वनामख्यात उदरामय रोग । बहुद्रवमलनिःसरण रोग । एकरोग जिसमें मल बढ़कर उदराग्निको मंद करता हुआ और शरीर के रसों को लेता हुआ बार बार निकलता है। इसमें श्रामाशय की भीतरी झिट्टियों में शोथ हो जाने के कारण खाया हुआ पदार्थ नहीं ठहरता और अंतड़ियों में से दस्त के रूप में निकल जाता है । पर्याय- इस हाल - अ० । शिकम रवी, पारवी - फा० । zafar Diarrhoea, डीफ्लक्सियो Defluxio, एल्वी फ्लक्सस Alvi fluxus, कैथार्सिस Catharsis, पर्गेशन Purgation -इं० 1 दस्त, दस्त धाना, दस्त लाना, पेट चलना-हिं०, उ० | कोर्स डी वेण्ट्री Cours de ventre, state Devoyement--फ्रांο। डेर डफाल Der Durchfall, बॉखफलस Bauchfluss, डुर्खलाफ Durchlauf - जर० । परिभाषा - प्रकृतिका अतिक्रमण कर गुदा मार्ग द्वारा अत्यन्त प्रवाहित होना अति (ती) सार कहलाता है । नोट- जिस श्रवयव के विकार द्वारा यह रोग होता है उसीके नाम से इसे अभिहित करते हैं । जैसेश्रामाशयातीसार, श्रांत्रातिसार तथा यकृदातीसार प्रभृति | इसी भाँति मल में जिस क्षेष की उल्यता होती है उसी दोष के नाम से इसे प्रभिधानित करते हैं। जैसे पित्तज अतिसार, कफज प्रतिसार तथा वासज अतिसार आदि । डॉक्टरी नोटजब रोग के कारण दस्त • श्राएँ तब डायरिया और जब विरेचन द्वारा श्राएँ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिसार तब उसे कैथार्सिस तथा पर्गेशन कहते हैं । कोई कोई डॉक्टर इसकी रोगों में गणना न कर केवल इसको उपसर्ग मानते हैं । निशन भारी ( मात्रा गुरु, स्वभाव गुरु ) गुण और पाक में भारी, अत्यन्त चिकनी, अत्यन्त रूखी, श्रत्यन्त गर्म, अत्यन्त पतली चीजों के खाने से, अतिस्थूल (अति कठिन), अति शीतल, विरुद्ध ( संयोग विरुद्ध देश विरुद्ध, समय त्रिरुद्ध और मात्रा विरुद्ध ), श्रध्यशन अर्थात् एक भोजन के बिना पचे फिर भोजन करने तथा श्रजीर्ण और विषय भोजन करने श्रादि कारणां तथा स्नेह, स्वेद, वमन विरेचनादि के प्रतियोग, श्रयोग और मिथ्यायोग से, विष भक्षण, भय, शोक दूषित जलपान, अतिशय मद्यपान, स्वभाव तथा ऋतु विपरीत और जल क्रीड़ा करने से, मल मूत्रादि के वेग को रोकने से तथा कृमि. दोष श्रादि कारणों से यह रोग उत्पन्न होता है । सु० उ० ४० श्र० । मा० नि । सम्प्राप्ति शरीर के दूषित रस, रक्त, जल, स्वेद, मेद, और मूत्र आदि सम्पूर्ण जलीय धातु बढ़कर मन्दाग्नि को पैदा कर मल के साथ मिल जाते और वायु द्वारा नीचे की ओर प्रेरित होकर अधिक मात्रा में निःसृत होते हैं, इसी को प्रतिसार कहते हैं । वैद्यक के अनुसार इसके ६ भेद हैं । (१) वायुजन्य, ( २ ) पित्तजन्य, ( ३ ) कफजन्य, ( ४ ) सन्निपात जन्य, ( २ ) शोकजन्य और ( ६ ) ग्रामजन्य । नोट- उपयुक्त भेदों के अतिरिक्त शार्ङ्गधर में भयजन्य प्रतिसार भी लिखा है । अस्तु, उनके मत से अतिसार सात प्रकार का हुआ 1 वाग्भट्ट महोदय उम्र छः प्रकार के अतिसारों में श्रामजन्य की गणना न कर उसके स्थान भयज अतिसार के वर्णन द्वारा उम्र छः भेदों की गाना की पूर्ति करते हैं । वे पुनः कुल प्रतिसारों को दो भागों में बाँटते हैं। जैसे ( १ ) साम और (२) निराम तथा एक सरक्क और दूसरा निरख । For Private and Personal Use Only में
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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