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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रऔर अधीर के बहाने पर अधिकार रखती है। परन्तु, शुष्कता उत्पन्न करने पर इसका कोई अधिकार नहीं होता अर्थात् यह शोषक गुण रहित है । यह स्वेदजनक एवं उत्तापशामक है। अजीर कान्तिदायक है; क्योंकि यह सूक्ष्म शोणित उत्पन्न करता है और उसको बहिर्भाग की और गति देता है। अपनी रतूबत, उष्मा और सूक्ष्मता के कारण इसका लेप फोड़ों को पकाता है। अपनी तीक्ष्णता ओर मधुरता द्वारा प्रामाशय को उत्तप्त करने के कारण यह उष्ण प्रकृति वालों को तृषान्वित करता है और उस पिपासा को जो खारी श्लेष्मा ( बल्ग़मशोर ) के कारण उत्पन्न हुई होती है उसको शमन करता है; क्योंकि यह बलराम ( श्लेष्मा) को विघलाता एवं पतला करता और काटता छाँटता है। अजीर पुरानी खाँसी को ला क्योंकि यह खाँसी केवल बलग़म से उत्पन्न होती है और अभीर बलराम को पिघलाता या न जुज (पका) देता एवं तह लील ( लय ) करता और दोषों से शुद्ध करता है। अपनी रोधउद्घाटक तथा कान्तिकारिणी शनि के कारण यह मूत्रविरजनीय है तथा यकृत एवं पीहा के रोध का उद्घाटक है। क्योंकि यह तीक्ष्ण मलों को त्वचा की ओर ... प्रक्षेपित करता है; अस्तु मूत्र उनसे रहित होता है, जिससे वस्ति में मूत्र सम्बन्धी कोई कष्ट नहीं होता । इससे सम्भव है कि मूत्र चिरकाल तक वस्ति में बिना किसी कष्ट के बन्द रहे। 'यह वस्ति और वृक्क प्रत्येक के लिए उपयुक्त है, क्योंकि यह कान्तिप्रदायक है एवं दोनों के मलों को मूत्र द्वारा विसर्जित करता तथा उनको त्वचा की ओर मायल कर देता है। निहार मुंह खाने से यह अन प्रणाली को खोलने में श्राश्चर्यजनक लाभ दिखलाता है। जब इसे अखरोर अथवा बादाम के साथ खाया जाता है तब यह अाहार से मिशित नहीं होता, जिससे इसकी वैयक्रिक शक्कि टूटने नहीं . पाती, क्योंकि उनकी चिकनाई अमीर के प्रवाह को जो तीषण दुग्ध के कारण होता है, तोड़ देती है। अखरोट के साथ इसका खाना अधिक पुष्टिकारक है। अंजीर ग़लीज़ (स्थूल ) आहार के साथ अत्यन्त रही होता है। क्योंकि वह इसको शरीर के वाह्य भाग की ओर गति देगा। अतः इससे वाह्य चेहरे में रोध एवं अन्य रोग होजाएँगे। __ इसका दुग्ध तीक्ष्णता के कारण रेचक है और रक एवम् दुग्ध को जमः देता है। क्योंकि इनके द्रवत्व को लय एवम् शुष्क कर देता है । यदि रक्त व दुग्ध जमे हुए हों तो उनको पिघला देता है क्योंकि यह अपनी तीक्ष्णता एवम् उत्ताप से दोनों के वनांश को पिघला देता है । (नफो०) यह वायु को लयकर्ता, अपस्मार (जगी), पक्षबद्ध पोर बहुधा कफ के रोगों को लाभकर्ता, प्रकृति को न कर्ता, ब्रम क्रम से रेचनकर्ता, रोध, प्लीह, शोथ, बहु मूत्रता और वृक्की कृशता को हरण करता है। इसका शर्बत कास को गुण कर्ता है। शुष्क सर्व कर्मों में हीन है। इसका मुख्य प्रभाव शरीर को स्थूल करना और क सीरुलिा जा ( जिसका अधिक भाग शरीर का भाग बने, जिससे अधिक रन बने ) है, विशेषकर उस अवस्था में जब इसे सोंफ के साथ ४० दिवस पर्यन्त सुबह को खाएँ । बादाम और पिस्तेके साथ भक्षण करनेसे बुद्धिवद्धक है । सुदाब के साथ विषघ्न, कुतुम बीज (कुसुम्भ) और बोरहे अरमनी के साथ विरेचन और अखरोट के साथ विशेष कर कामोद्दीपक है। इसका लेप खना ज़ीर को लाभप्रद है । इसका दुग्ध चतुत्रों में लगाना मोतियाबिन्द के लिए लाभदायक है। (बु० मु०, मु. १०) अजीर पथ्य सहज में पच जाने वाला और औषध रूप से उपयोग करने पर वृक्क एवं वस्ति संबन्धी अश्मरियों का नाश करने वाला और यकृत तथा प्लीहा के अवरोधों को दूर करने वाला है । यह गठिया एवं अर्श चिकित्सा में For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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