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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मानम् १८३ अञ्जनम् (३) डाक्टरी मतानुसार अञ्जन के वाह प्रभाव अजन के यौगिकों का स्वचा पर सशक्त उग्रतासाधक वा क्षोभक (इरिटेण्ट) प्रभाव होता है । अस्तु, टार्टरेटेड ऐण्टिमनी को मलहम रूप में त्वचा पर लगाने से शीतला सहश दाने उत्पन्न हो जाते हैं, जिनसे क्षत होकर सर्वदा के लिए चिह्न रह जाते हैं। श्राभ्यंतरिक प्रभाव श्रामाशय तथा श्रांत्र-जन के यौगिकों के प्राभ्यंतरिक उपयोग से भी वैसा ही उग्रता साधक (क्षोभक) प्रभाव होता है जैसा कि उसके वाह्य उपयोग से । अस्तु, यदि टार्टरेटेड ऐण्टिमनी को अधिक मात्रा में खाया जाए अथवा अधिक समय तक औषध रूप से उपयोग में लाया जाए तो मुख, कर, अन्नप्रणाली, श्रआमाशय और प्रांत पर इसका वैसा ही उग्रता साधक प्रभाव होता है जैसा कि त्वचा पर । इसे सूचम मात्रा में व्यवहार करने से प्रामाशय में उष्मा एवं वेदना का भान होता है और किश्चित् मात्रा में देने से क्षुधा प्रायः नष्ट होजाती है. जी मचलाता है और प्रामाशय व आंत्र की श्लैष्मिक कला से अधिक द्रवस्त्राव होता है। इससे भी अधिक मात्रा अर्थात २ या ३ ग्रेन की मात्रा में देने से यह वामक प्रभाव करता है और इसका यह ( वामक ) प्रभाव भामाशयपर इसके प्रत्यक्ष (सरल) वामक (डायरेक्ट एमेटिक) प्रभाव का प्रतिफल स्वरूप होता है। किन्तु,तत्काल अभिशोषित होकर मास्तिष्कीय वमन केन्द्र पर भी यह किसी भाँति अप्रत्यक्ष ( असरल ) वामक (इरडायरेक्ट एमेटिक) प्रभाव करता है। यदि इसको त्वक्स्थ अन्तःक्षेप द्वारा रकमें प्रविष्ट किया जाए तो भी इससे वमन आने लगता है जिसका कारण यह होता है कि कुछ तो इसका प्रभाव वमन केन्द्र पर होता है और कुछ इस प्रकार कि यह शोणित में अभिशोषित होकर किसी भाँति प्रांत्र तथा आमाशय में खारिज होता है जिससे कुछ समय तक वमन श्राता रहता है। और यदि इसको बहुत से पानी में घोल कर दिया जाए तो वमन | तो कम पाता है। किन्तु, दस्त अधिक पाते हैं। अत्यधिक मात्रा अर्थात् विषैली मात्रा में इसे देने से प्राना राय तथा प्रांत्र में खराश होकर बिशूचिका के समान लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं और दर में रोड़ होकर दस्त ग्राने लगते हैं। अति सूरन मात्रा में यदि इसे मुख द्वारा प्रामाशय में प्रवेशित किया जाय तो यह बड़ी मात्रा में शिरामें अन्तःप द्वारा पहुँचाए जानेकी अपेक्षा शीघ्र प्रभाव करता है। इससे यह सिद्ध होता है कि वमन लाने में वानक केन्द्र की अपेक्षा इसका स्थानीय प्रभाव ही मुख्य है। हृदय तथा शाणित परिचालन-अम्जन के विलेय गुण युक्त लवण शीघ्र रक में शोषित होजाते हैं । परन्तु, ये रकवारि (प्राज़्मा) की अल्ब्युमिन में मिलित नहीं होते । उपयोग के प्रारम्भ से ही चाहे इसको सूक्ष्म ( ग्रेनसे ग्रेन) मात्रा में ही दिया जाए तो भी यह हृदय की शक्रि तथा गति दोनों को कम कर देता है। परंतु, मतली को उत्तेजना मिलती है। उसकी गति रुक-रुक कर (कै )होने लगती है। इसे अधिक मात्रा में व्यवहार करने से हृदय अत्यन्त निर्बल होजाता है। और द्वितीय यह कि वैसोमोटर सिस्टम के किसी स्थल पर निर्बलताजनक प्रभाव पड़ने से धामनिक मांस पेशियाँ शिथिल होजाती हैं । इस कारण अंजन (ऐण्टिमनी) रक्रभ्रमण तथा हृदय को सशक्त निर्बलकारी या हृदयावसादक औषध है। (अंजन का उक निर्बलकारो प्रभाव बहुतांश में विष अर्थात् सींगिया के समान ही होता है।) फुप्फुस तथा श्वासोच्छ्वास-अंजन के प्रभाव से प्रथम तो श्वासोच्छ वास में सूक्ष्म सी उत्तेजना होती है, तत्पश्चात् वह अत्यन्त शिथिल होजाता है । अस्तु, श्वासकाल घट जाता है और श्वास छोड़ने का समय बढ़ जाता है। अन्ततः श्वासोच्छवास का मध्य काल बहुत बढ़ जाता है और उसकी गति अनियमित होजाती है। अंजन वायुप्रणाली की श्लैष्मिक कला के मार्ग . से विसर्जित होता है। इस हेतु यह शोफन श्लेष्मानिस्सारक ( ऐण्टिफ्लोजिस्टिक एक्सपेक्टोरेण्ट) प्रभाव करता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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