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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अञ्जनम् भानम् -इं०। मरहम वामक टारि ( लवण), टाछुराअनानुलेपन-हिं० । मरहम तीरुल मुक़ई, मरहम नमक -ति०। निर्माण-विधि-टार्टरेटेम् ऐण्टीमनी का बारीक चूण १ भाग सिम्पल अाइरटमेण्ट ( सादा मरहम) ४ भाग भली भाँति मिश्रित करलें । (ब्रिटिश फार्माकोपिया के परिशिष्टांकस्थ योगानुसार) अंजन के विभिन्न यौगिकोंके विस्तृत गुण धर्म व प्रयोग (१) आयुर्वेदिक मतानुसारअजन सम्पूर्ण चक्षुदोषनाशक, आयुष्यदीर्घ करता, सर्व रोगनाशक, ज्ञान प्रकाशक, शान्ति दायक, प्लीहा रोग नाशक, रियों से प्राप्त होने वाले तपेदिक, अङ्गभेद, यवमा आदि रोग नाशक है ।त्रिककुत् नामक पर्वतसे उत्पन्न अजन सर्वश्रेष्ठ है । अथ० । सू०४४। ६ । का०१६ । स्रोतोऽजन काला सुरमा और सौवीर श्वेत सुरमा को कहते हैं । जो बांबी के शिखर के सदृश होता है वह स्रोतोऽजन कहलाता है। सफेद सुरमा भी स्रोतांजन के सदृश होता है । किन्तु कुछ पीले रंग का होता है। भा। . काला सुरमा शीतल, कटु, कषैला, कृमिघ्न, रसायन, रस योग्य और स्तन्य वृद्धिकारक है। (रा. नि०व०१३) स्रोतोऽऽजन ( काला सुरमा ) मधुर, नेत्रों को हितकारी, कषैला, लेखन, ग्राही तथा शीतल है और कफ, पित्त, वमन, विष, श्वित्र ( सफेद कोढ़), क्षय तथा रक्रविकार को नष्ट करता है । यह सदा बुद्धिमानों को सेवनीय है। जो स्रोतोऽजन में गुण हैं वे सौवीर में भी हैं; ऐसा विद्वानों ने कहा है। किन्तु, दोनों अंजनों में स्रोतोऽजन ही श्रेष्ठ है । भा० । सफेद सुरमा नेत्रों को परम हितकारी है। अतएव इसे नित्य लगाना चाहिए। इसको लगाने से नेव मनोहर और सूक्ष्म वस्तु के देखनेवाले होते हैं । सिन्धु नामक पर्वत में उत्पन्न हुश्रा काला सुरमा ( शुद्ध किया हुआ. न होने पर भी) उत्तम होता है । इसको लगाने से यह नेत्रोंकी खुज़ली मैल, तथा दाह को नष्ट करता है, और वेद । ( नेत्रों से पानी का बहना) तथा पीडा को दूर करता है । नेव स्वरुपवान होते हैं, और बात तथा नायु और धूप को सहन करने में समर्थ होते हैं । काला सुरमा लगाने से नेत्रों में रोग नहीं होते, इस कारण इसको भी लगाना चाहिए । रात में जागो हुश्रा, थका हुश्रा, वमन करने वाला, जो भोजन कर चुका हो, ज्वर रोगी और जिसने शिर से स्नान किया हो उनको सुरमा नहीं लगाना चाहिए। (भा० प्र० ख०१) (२)यून नो मतानुसारस्वरूप-श्याम, श्वेत तथा रक वर्ण । स्वाद-बेस्वाद । प्रकृति-प्रथम कक्षा में शीतल और द्वितीय कक्षा में रूक्ष (किसी किसीके विचार से २ कक्षा में डंडा और रूद)। हानिकर्ता-वक्षस्थलस्थ अवयवों को । दर्पनाशक-कतीरा तथा शर्करा । प्रतिनिधि-अनार । गुण, कर्म व प्रयोग-सुरमा पारद तथा गंधक दो वस्तुओं का यौगिक है जिनमें गंधक प्रधान है। इसी कारण यह विबन्धकारी या बद्धक व रूक्षता प्रद है । रूक्षता की अधिकता के कारण यह ग्रणपूरक है तथा उनके बढ़े हुए मांस को नष्ट कर देता है। अपनी कटज़ तथा रूक्षता एवं नेत्र की भोर मलों को रोकने के कारण दृष्टि को बलप्रद तथा नेत्र की स्वस्थता का रक्षक है । उस नकसीर को बन्द करता है जो मस्तिष्क के परदों से फूटा करती है । नेत्र की सरदी गरमी और कीचड़का हरणकर्ता है । इसका हुमूल (वर्ती ) जरायु द्वारा रक्तस्राव होने को रोकता है । (नफो०। । इसकी पिचुक्रिया अर्थात् भिगोया हुश्रा कपड़ा रखना गुदभ्रंश (काँच निकलने ) को गुण करता है और गर्भाशय की कठोरता को मृदु करता है । सुरमा शुक्रमेह और प्रार्तव का रुद्धक है तथा रकस्राव (मुख. द्वारा रकलाव), पुरातन सूजाक, व्रण, अर्श, तथा नासूरों ( नाडीव्रण) को लाभप्रद है और राजयक्ष्मा को दूर करता एवं अन्य भाँति के ज्वरों के लिए गुणदारी है। For Private and Personal Use Only
SR No.020089
Book TitleAyurvediya Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1934
Total Pages895
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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