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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७९० ) अष्टांगहृदय । म. १३ ho. - हंति काचार्मनक्तांध्यरक्राजीः सुशीलितः॥ । बारबार अग्नि में तपाकर गोमूत्र, गोवर का चूर्गोविशेषात्तिमिरं भास्करो भास्करो यथा रस, खट्टी कांजी, स्त्रीके स्तनों का दूध, ____अर्थ-नीलाथोथा लेकर बेरकी लकड़ियों घी, विष और शहत में बारबार बुझावै इस में जला देवै और क्रमपूर्वक बकरी के दूध, नीलाथोथे का अंजन लगाने से दृष्टि गरुड घी और शहत में पहिले की तरह बुझावै । ! के समान होजाती है। फिर इसमें से दोपल,सौनामाखी कालीमिरच सीसे की शलाका । अजन कुटकी तगर सेंधानमक लोध मनसिल श्रेष्ठाजलं भृगरसं सबिषाज्यमजापयः । हरड पीपल रसौत समुद्रफेन और मुलहटी । यष्टीरसं च यत्सीसं सप्तकृत्वः पृथक् पृथक ॥ प्रत्येक एक कर्ष । इन सब द्रव्यों को मूषके तप्तं सप्तं पायिंत तच्छलाका नेत्रे युक्ता सांजनानजना वा। भीतर रखकर जलादेवै । यह भास्करांजन तैमिर्मिनावपच्छिल्यपैल नित्यप्रति लगाने से काचरोग, अर्म,रतौंध, __ कंइं जाड्यं रक्तराजींच हंति ॥ ३५॥ रक्तराजी और विशेष करके तिमिररोग को अर्थ-त्रिफला का कार,भांगरे का रस, ऐसे नष्ट करदेता है, जैसे सूर्य अंधकार का विष, घी, बकरी का दूध, मुलहटी का रस नाश करदेता है। इनमें अलग अलग सात सात बार सीसे द्वितीय भास्करांजन । को आग में तपा तपाकर बुझावै । फिर निशद्भागा भुजंगस्य गंधपाषाणपंचकम् । । इस सीसे की सलाई बनाकर इसमें अंजन शुल्तारकयोग द्वौ वंगस्यैकोजनात्रयम् ॥ लगाकर वा बिनाही अंजन इसको आंखों में अंधमूर्षाकृतं ध्मात पक्कं विमलमंजनम् । फेरे । इससे तिमिर,अर्म, स्त्राव,पिच्छिंलता, तिमिरांतकरं लोके द्वितीय इव भास्करः ॥ अर्थ-सीसा३० भाग, गंधक ५ भाग, पैल्ल, कंडू, जडता और रक्तरामी जाते रहते हैं । तांबा और हरताल दो दो भाग, बंग एक गिद्धदृष्टिकारक योग । भाग, तथा सौवीरांजन तीन भाग इन सब रसेंद्रभुजगौ तुल्यौ सयोस्तुल्यमथांजनम् । को अंधभूषायंत्र में भर कर फूंकले । यह ईषत्कर्पूरसंयुक्तमंजनं तिमिरापहम् ॥३६ ।। अंजन नेत्रों को निर्मल करदेता है और यो गृध्रस्तरुणरविप्रकाशगलतिमिररोग को दूर करने में दूसरे सूर्य के स्तस्यास्यं समयमृतस्य गोशकाद्भः। निर्दग्धं समघृतमजनं च पेयं समान है। योगोऽयं नयनबलं करोति गार्धम् ॥ दृष्टिवईक नीलाथोथा । । अर्थ-पारा और सीसा समान भाग गोमूत्रे छगणरसेऽम्लकांजिके च | लेकर इन दोनों के बराबर सुरमा और सोलस्त्रीस्तन्ये हविषि विषे च माक्षिके च। यतुत्थं ज्वलितमनकशोनिषिक्तं हवां भाग कपूर लेकर सबको बारीक पीस तत्फुर्याद्रुडसम नरस्य चक्षुः॥३३॥ डाले, इसको आंजने से तिमिररोग नष्ट हो. अर्थ-नीलाथोथे की एक डेली लेकर | जाता है । तरुण सूर्य के समान प्रकाशमान.. For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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