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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म. १३ उत्तरस्थान भाषाटीकासमेत । (७८९) दाख को अलग अलग खांड भौर शहत में । नक्षत्र में चन्द्रमा हो उस दिन दोनों नेत्रों मिलाकर तिमिररोगी को निरंतर सेवन करना | में इस अंजन को लगावै, इससे तिमिर, चाहिये । अर्म, रक्तराजी, कंडू, काच आदि रोग शांत. सर्वतिमिरनाशक अंजन । । होजाते हैं। स्रोतोजांशांश्चतुःषष्टिं ताम्रायोरूप्यकांचनैः कफामय नाशक चणे । यतान प्रत्येकमेकांशैरंधमूषोदरस्थितान् । मरिचयरलवणभागी भागी द्वौमापयित्वा समावृत्तं ततस्तच्च निषेचयेत् । कणसमुद्रफेनाभ्याम् । रसस्कंधकषायेषु सप्तकृत्वः पृथक् पृथक् । सौवीरभागनवकं चित्रायां चूर्णितंवैडूर्यमुक्ताशंसानां त्रिभिर्भागैर्युतं ततः।। __कफामयजित् ॥ २५॥ चूर्णीजनं प्रयुंजीत तत्सर्व तिमिरापहम् ॥ । । अर्थ - काली मिरच और सेंधानमक ___ अर्थ-सुर्मा ६४ भाग, तांबा लोहा, । चांदी सौना प्रत्येक एक एक भाग, इन | | दो भाग, पीपल और समुद्रफेन दो भाग, सुर्मा नौ भाग इनको चित्रानक्षत्र में पीसकर सबको मिलाकर अधमूषा नामक यंत्र के चूर्ण बना लेवै । इसके भांजने से नेत्र भीतर रखकर अग्नि से फूंके फिर शिला संबंधी कफके रोग जाते रहते हैं। पर अच्छी तरह पीसकर इसको मधुरादि सर्वाक्षिरोग पर अंजन। द्रव्यों के काढे में सातबार डाले, तदनंतर द्राक्षामृणालिस्वरसे क्षीरमद्यवसासु च । मुंगा, मोती और शंख इनको तीन तीन पृथकूदिल्याप्सुस्रोतोजसप्तकृत्वोनिषेधयेत् ॥ भाग मिलाकर महीन पीस डाले । यह तञ्चणित स्थित शंने हमसादनमंजनम् । अंजन सब प्रकार के तिमिर रोगों को नष्ट | शस्तं सर्वाक्षिरोगेषु विदेहपतिनिर्मितम् । कर देता है। अर्थ-दाख और कमलनाल के स्वरस तिमिरादि शांतिकारक अंजन। में, दूध, मद्यमें, चर्बीमें, और आंतरीक्ष मांसीविजातकायाकुंकुमनीलोत्पल जलमें अलग अलग सात सात बार सुमेको ___ लाभयातुत्यैः। सेचित करे, फिर इसको पीसकर शंखमें सितकाचशंखफेनकमरिचांजनपिप्प- रखले, यह अंजन दृष्टिको स्वच्छ करता है लीमधुकैः ॥ २३ ॥ और संपूर्ण प्रकार के नेत्ररोगों में प्रशस्त चंद्रऽश्विनीसनाथे सचर्णितरजोगलमयो।। है । यह अंजन विदेहाधिपति का बनाया तिमिरामरक्तराजांकडूकाचादिशममिच्छन् हुआ है। अर्थ-जटामांसी, तेजपात, इलायची, भास्करांजन । दालचीनी, लोह, कुंकुम, नीलकमल, हरड, निर्दग्धं वादरागारैस्तुत्थं चेत्थं निपचितम् क्रमादजापयः संर्पिः क्षौद्रे तस्मात् पलद्वयम् नीलाथोथा, सफेद काच, शंख समुद्रफेन, कार्षिकैस्ताप्यमरिचस्रोतोजकटुकानतः। काली मिरच, अंजन, पीपल, मुलहटी, इन पटुरोधीशलापथ्याकणैलांजनफेनिकैः ॥ सबको पीसले । फिर जिस दिन अश्विनी । युक्तं पलेन यष्टयान मूषांतांतचूर्णितम् । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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