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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५२०) . अष्टांगहृदय । कफघ्नमन्नं हृद्य च रागाः सार्जकभूस्तणाः । दृद्रोग से उत्पन्न होते हैं वेभी इन उपायें लढिं मनःशिलाकृष्णामारचं वीजपूरकात् ।। से शांत होजाते हैं। स्वरसेन कपित्थाच्च सक्षौद्रेण वर्मि जयेत् छर्दिमें स्तंभन वृंहण । खादेत्कपित्थं सव्योषं मधुना वा दुरालभाम् छर्दिप्रसंगने हि मातरिश्वा अर्थ-कफज वातरोग में नीम, पीपल, धातुक्षयात्कोपमुपैत्यवश्यम् । और कोल्हूमें पिलीहुई सरसों कुछ गरमजल कुर्यादतोऽस्मिन् वमनातियोग में मिलाकर पान कराने से वमन कराना प्रोक्तं विधिं स्तंभनबृहणीयम् ॥ २३॥ सर्पिर्गुडा मांसरसा घृतानि चाहिये । यदि रोगी दुर्बल हो तो वमन न कल्याणकत्र्यूषणजविनानि। देकर लंघन कराना उचित है । आरग्वधा- पयांसि पथ्योपहितानि लेहाश्छर्दिदि गणोक्त द्रव्योंका काथ ठंडा करके शहत प्रसक्तां प्रशमम् नयंति ॥ २४ ॥ मिलाकर पान करावे, वमननाशक औषधि अर्थ-क्योंकि वमनके अत्यन्त प्रसंग यों से कितनी ही बार भावना दिये हुए जौ | से धातुओं का क्षय होताहै, इसलिये धातुओं का मन्थ, कफनाशक मनको प्रसन्न करने के क्षयसे वायु अवश्यही प्रकुपित होजातोह पाला अन्नका भोजन तथा तुलसी और अतः वमनातियोग में कही हुई स्तंभन और भूस्तृण से संयुक्त रागादि का सेवन करै ।। वृंहण चिकित्सा करना चाहिये । तथा दोष तथा मनसिल, पीपल, कालीमिरच, इनके और दूष्यके अनुसार घी, गुड, मांसरस चूर्ण में शहत मिलाकर बिजौरे वा कैथके कल्याणकादि घृत, त्रयूषणवृत, जविनीयवृत रसके साथ सेवन करै, अथवा कैथको त्रि- और हितकारी पथ्यों से मिले हुए दृध और कुटा और शहतके साथ दुरालभा को शहत | अवलेह इनका प्रयोग करे ॥ इससे निरंतर के साथ सेवन करे । इन प्रयोगों से कफज होनेवाली वमन शांत होजाती है । वातजहृद्रोग में तैलपान । वमन वन्द होजाती है। | हृद्रोगे वातजे तैलं मस्तुसौवीरतक्रवत् । द्विष्टार्थ वमनका शमन । पिबेत्सुस्राणांसविडं गुल्मानाहार्तिजञ्च तत् अनुकूलोपचारेण याति द्विष्टार्थजा शमम् ॥ __ अर्थ-वातज हृद्रोगमें दहीका तोड, ___ अर्थ-द्विष्टार्थजा वमन मनके अनुकूल , रसौत और तक डालकर ईषदुष्ण तेल पीना व्यापारों से बन्द होजाती है । चाहिये । तथा इसमें नमक डालकर पीनेसे कृमिज वमन । गुल्म, आनाह और अति दूर होजाते हैं । कृमिजा कृमिहद्रोगगदितैश्च भिषाजितैः ।। सैंधवादि युक्त तेल । यथास्वं परिशेषाश्च तत्कृताच तथामयाः तैलंच लबणैःसिद्धं समूत्राम्लं तथागुणम् । अर्थ-कृमिसे उत्पन्न हुई वमन कृमि | अर्थ-सेंधवादि पांचों नमक, गोमूत्र और हृद्रोगमें कहे हुए उपायों से शांत हो | और कांजी, डालकर सिद्ध किया हुआ तेल जाती है तथा अन्यरोग भी जो कृमि और । उपरोक्त गुणोंसे युक्त होताहै । For Private And Personal Use Only
SR No.020075
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKishanlal Dwarkaprasad
Publication Year1867
Total Pages1091
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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