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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८४०) अष्टाङ्गहृदयेसः॥१०॥अधोमुखस्थिति स्नानं दन्तधावनभक्षणम्॥सप्ताह नाचरेत्नेहपीतवच्चात्र यन्त्रणा ॥ १९॥ और अच्छीतरह विद्धहुये नेत्रमें शब्द होताहै, और पीडा नहीं होतीहै और लेशमात्र पानी झिरताहै ॥ १३ ॥ पीछे रोगीको आश्वासितकरताहुआ वैद्य नेत्रको नारीके दूधसे सेचित करे पीछे सलाईके अग्रभागसे नेत्रमंडलको निर्लखितकरै ॥ १४ ॥ नहीं पीडाको प्राप्त होताहुआ वैद्य हौले होले नासिकाके प्रति कफको प्रेरित करताहुआ वही वैद्य उत्सिञ्चनसे दृष्टिमंडलमें प्राप्तहुये कफको हरे ॥ १५ ॥ स्थिरहुये अथवा चलायमान हुये दोषमें बाहिरसे नेत्रको स्वेदितकरै पीछे वस्तु दीखने लगजावे तब सलाईको हौले हौले निकासै ॥ १६ ॥ पीछे घृतसे संयुक्त किये रूईके फोएको देकर पट्टी बांधकर जौनसी आंख बांधीगईहै तिससे दूसरी पार्श्वकरके शयन करावै और दोनों नेत्रोंके वींधजानेमें तिसको सीधा शयन करावै ॥ १७ ॥ परंतु अभ्यक्तहुआहै शिर और पैर जिसका ऐसा और हितमें रत तिस रोगीको जहां वायु नहीं लगसके तहां शय्यापै शयन करावै. और छींक खांसी डकार पानीका पीना ॥ १८॥ नीचेको मुख करके स्थिति स्नान दंतधावन भक्षणको सात दिनोंतक आचारत नहीं करे यहां स्नेहका पान करनेवालोंकी तरह यंत्रणाहै ।। १९ ॥ शक्तितो लंघयेत्सेको रुजि कोष्णेन सर्पिषा ॥ सव्योषामलकं वाट्यमश्नीयात्सघृतं द्रवम् ॥२०॥ विलेपी वा व्यहाच्चास्य काथैर्मुक्त्वाक्षि सेचयेत् ॥ वातनैः सप्तमे त्वह्नि सर्वथैवाक्षि मोचयेत् ॥२१॥ शक्तिके अनुसार इस रोगीको लंघन करावै और पीडा होवे तो कछुक गरम किये घृतसे सेंक करना हितहै और सूंठ मिरच पीपल आँवला पोहकरमूलके द्रवको घृतकेसंग तीन दिनोंतक खावे ॥ २० ॥ अथवा तीन दिनोंतक चलेपीको खावै पाछे नेत्रको खोलके वातके नाशनेवाले औषधोंकरके सेचितकरै पीछे सातवें दिन सब प्रकारसे नेत्रोंको खोलदेवै ॥ २१ ॥ यन्त्रणामनुरुध्येत दृष्टेरास्थैर्यलाभतः॥ रूपाणि सूक्ष्मदीप्तानि सहसा नावलोकयेत् ॥ २२॥ दृष्टिकी स्थिरता होवे तबतक यंत्रणा अर्थात् परहेजको करै सूक्ष्म और प्रज्वलित हुये रूपोंको एकही बार न देखे ॥ २२॥ शोफरागरुजादीनामधिमन्थस्य चोद्भवः ॥ अहितैर्वेधदोषाच्च यथास्वं तानुपाचरेत् ॥ २३ ॥ अपथ्यके आचरणसे और वेधके दोषसे शोजा राग पीडा आदिकोंकी और अधिमंथकी उत्पत्ति होतीहै, तिन्होंको यथायोग्य उपाचरितकरै ।। २३ ॥ कल्किताः सघृता दूर्वायवगैरिकसारिवाः ॥ मुखालेपे प्रयोक्तव्या रुजारागोपशान्तये ॥ २४ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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