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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७४६) अष्टाङ्गहृदयेदाव अग्निकरके नहीं दग्धकिया और वैकृतरूप आकाश आदि भूतोंकरके नहीं दग्धहुआ ॥ ३॥ और छाया घाम जल इन आदिकरके कालके अनुसार सेवित किया और दूर प्राप्त हुई और बडी जडवाला और उत्तर दिशामें आश्रित होके स्थित हुआ औषध श्रेष्ठहै ॥ ४ ॥ अथ कल्याणचरितःश्राद्धः शुचिरुपोषितः॥ ग्रहीयादौषधं सुस्थं स्थितं काले च कल्पयेत् ॥५॥ सक्षीरं तदसम्पत्तावनति क्रान्तवत्सरम् ॥ ऋते गुडघृतक्षौद्रधान्यकृष्णाविडङ्गतः॥६॥ पीछे बलि होम आदि कल्याणोंको आचरित करता हुआ और श्रद्धावाला और पवित्र और घृतको करनेवाला मनुष्य औषधको ग्रहण करे, पीछे तिस औषधको अच्छी तरह स्थितकरके कालमें दूधसे सहित अर्थात् गीलीको कल्पित करै ॥ ५ ॥ तिस औषधकी असंपत्तिमें एक वर्षको नहीं उल्लंधित करनेवाले औषधको ग्रहण करै परंतु गुड घृत शहद धान्य पीपल वायविडंग इन्होंको वर्जके अर्थात् ये एक वर्षसे उपरांत अच्छे होते हैं ॥ ६ ॥ पयो बाष्कयणं ग्राह्यं विण्मूत्रं तच्च नीरुजम् ॥ वयोबलवतां धातुपिच्छशृङ्गखुरादिकम् ॥७॥ बष्कयिणी संबंधि अर्थात् तरुणवत्स गौका दूध ग्रहणकरना योग्यहै और दोषोंसे रहित विष्ठा मूत्र दूध ये ग्रहण करनेयोग्य, तरुण अवस्था और बलवालोंके धातु पंख सींग खुरआदि ग्रहण करने योग्यहैं ॥ ७ ॥ कषाययोनयः पञ्च रसा लवणवर्जिताः॥ रसः कल्कः शृतः शीतः फाण्टश्चेति प्रकल्पना ॥८॥ पञ्चधैव कषायाणां पूर्व पूर्व बलाधिकाः॥ कषायकी योनिवाले नमकसे वर्जित मधुर आदि पांच रसह तिन्होंसे स्वरस कल्क क्वाथ शीतकषाय फांटकी कल्पना कीजातीहै ॥ ८ ॥ ऐसे कषायोंकी पांच प्रकारकी कल्पनाह तिन्होंमें पूर्व पूर्वक्रमसे बलकरके अधिक जानने ॥ सद्यः समुद्धताक्षुण्णाद्यः स्रवेत्पटपीडितात् ॥ ९ ॥ स्वरसः सममुद्दिष्टः कल्कः पिष्टो द्रवाप्लुतः॥ चूर्णोऽप्लुतःशृतः काथः शीतो रात्रिं द्रवे स्थितः॥१०॥ सद्योऽभिषुतपूतस्तु फाण्टस्त न्मानकल्पने ॥ जो तत्काल समभूमिसे उखाडेहुये और कूटेहुये और वस्त्रसे पीडितकिये औषधसे झिरताहै ॥९॥ वह स्वरस कहाताहै, और पिसा हुआ द्रवकरके आप्लुत हुआ कल्क कहाताहै और For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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