SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 808
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कल्पस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (७४५) दद्यान्मधुरहृद्यानि ततोऽम्ललवणौ रसौ॥ ५२ ॥ स्वादुतिक्तौ ततो भूयः कषायकटुको ततः ॥ पीछे स्वादु और तिक्त पीछे कसैले और कडुवे फिर मधुर और मनोहर पीछे अम्ल और सलोने ॥ १२ ॥ फिर स्वादु और तिक्त फिर कड्डुवे और कसैले रसोंको देतारहै ॥ अन्योऽन्यप्रत्यनीकानां रसानां स्निग्धरूक्षयोः ॥५३ ॥ व्यत्यासादुपयोगेन क्रमात्तं प्रकृतिं नयेत् ॥ सर्वसहः स्थिरबलो विज्ञेयः प्रकृतिं गतः॥ ५४॥ और आपसमें प्रतिपक्षवाले रसोंको और स्निग्ध तथा रूक्षको ॥ ५३ ॥ विपर्ययसे और उपयोगकरके क्रमसे तिस मनुष्यको यथोचित प्रकृतिको प्राप्त करै, और सब पदार्थोंको सहनेवाला और स्थिरवलवाला प्रकृतिको प्राप्त हुआ वह मनुष्य जानना योग्य है ॥ ५४ ॥ इति वरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां कल्पस्थाने पंचमोऽध्यायः ॥ ५॥ षष्ठोऽध्यायः। -occasअथातो भेषजकल्पमध्यायं व्याख्यास्यामः। इसके अनंतर भेषजकल्पनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे। धन्वसाधारणे देशे समे सन्मृत्तिके शुचौ ॥ श्मशानचैत्यायत. नश्वभ्रवल्मीकवर्जिते ॥१॥ मृदौ प्रदक्षिणजले कुशरोहिषसंस्तुते ॥ अफालकृष्टेऽनाकान्ते पादपैर्बलवत्तरैः॥२॥ शस्यते भेषजं जातं युक्तं वर्णरसादिभिः॥जन्त्वदग्धं दवादग्धमविदग्धं च वैकृतैः ॥३॥ भूतैश्छायातपाम्ब्वायैर्यथाकालं च सेवितम् ॥ अवगाढमहामूलमुदीची दिशमाश्रितम् ॥४॥ जांगल तथा साधारण औरसम और श्रेष्ठ मृत्तिकासे संयुक्त और पवित्र और श्मशान देवताविष्टितस्थान और छिद्र सांप आदिकी बंबईसे वर्जित ॥१॥और कोमल और अनुकूल जलसे संयुक्त कुशा तथा रोहिषतृणसे विस्तृत और हल आदि करके नहीं कर्षित और अत्यंतबडे वृक्षोंकरके नहीं अक्रांत देशमें ॥ २ ॥ उपजा और वर्ण रसआदिकरके संयुक्त कीडोंकरके नहीं खायाहुआ और For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy