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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कल्पस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (७४१ ) बस्तिरत्युष्णतीक्ष्णाम्लघनोतिस्वेदितस्य वा॥२१॥अल्पे दोषे मृदौ कोष्ठे प्रयुक्तो वा पुनः पुनः॥अतियोगत्वमापन्नो भवेत्कुक्षिरुजाकरः॥२२॥विरेचनातियोगेन सतुल्याकृतिसाधनः। बस्तिःक्षाराम्लतीक्ष्णोष्णलवणः पैत्तिकस्य वा ॥ २३ ॥ गुदं दहल्लिखन्क्षिण्वन्करोत्यस्य परिस्रवम् ॥ सविदग्धं स्रवत्यत्रं वर्णैः पित्तं च भूरिभिः॥ २४ बहुशश्चातिवेगेन मोहं गच्छति सोऽसकृत् ॥ रक्तपित्तातिसारनी क्रिया तत्र प्रशस्यते॥२५॥ दाहादिषु त्रिवृत्कल्कमृद्वीकावारिणा पिबेत्।।तद्धि पित्तशकृद्वा- . तान्हृत्वा दाहादिकाञ्जयेत् ॥ २६ ॥ विशुद्धश्च पिबेच्छीतां यवागूशर्करायुताम्॥युंज्याद्वातिविरिक्तस्य क्षीणविटकस्य भोजनम् ॥ २७॥ माषयूषणकुल्माषान्पानं दध्यथवा सुराम् ॥ सिद्धिर्बस्त्यापदामेवं स्नेहबस्तेस्तु वक्ष्यते ॥ २८॥ और अत्यंत उष्ण तीक्ष्ण अम्ल धन बस्ति अत्यंत स्वेदित ॥ २१ ॥ अल्पदोषमें और कोमलकोष्टमें पूर्वोक्त बस्ति प्रयुक्त करना योग्यहै, अथवा बारंबार अतियोगताको प्राप्तहुआ बस्ति कुक्षिम शूलको करताहै ॥ २२ ॥ विरेचनके आतयोगकरके समानहै लक्षण और चिकित्सा जिसकी ऐसा और खार अम्ल तीक्ष्ण लवणसे संयुक्त बस्ति प्रयुक्त करना अथवा पित्तवालेके यही प्रयुक्त किया बस्ति ॥ २३ ॥ गुदाको दग्ध करनेकी तरह और क्षेपित करनेकी तरह इस मनुष्यके पारस्वको करताहै, तब वह मनुष्य विदग्धहुये रक्तको झिराताहै और बहुतसे वर्णोकरके पित्तको झिराताहै ॥ २४ ॥ और वह मनुष्य बहुतवार अत्यंतबेगकरके मोहको प्राप्त होताहै तहां रक्तपित्त और अतीसारको नाशनेवाली क्रिया श्रेष्ठहै ॥ २५ ॥ दाह आदिकोंमें निशोतके कल्कको मुनक्का दाखके पानीके संग पीवै वह कल्क पित्त विष्ठा वायुको हरणकरके दाहआदिकोंको जीतताहै॥२६॥ विशेषकरके शुद्धहुये मनुष्यको खांडसे संयुक्तकरी और शीतल यवागूका पान करावै अथवा अत्यंत विरिक्तहुयेको और क्षीण विष्ठावालोंको भोजन ॥ २७ ॥ उडदके यूषके संग करावै अथवा उडदों के यूषके संग कुल्माषोंका भोजन करावै, दहीका अथवा मदिराका पान करावै निरूहबास्तिकी व्याप त्तियोंका चिकित्सित कहा, अब अनुवासन स्नेह बस्तिके चिकित्सितको कहेंगे ॥ २८ ॥ शीतोऽल्पो वाऽधिके वाते पित्तेत्युष्णः कफे मृदुः ॥ अतिभुक्त गुरुवर्चः सञ्जयेऽल्पबलस्तथा॥२९॥ दत्तस्तैरावृतस्नेहो नाया त्यभिभवादपि॥स्तम्भोरुसदनाध्मानज्वरशूलाङ्गमर्दनैः॥३०॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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