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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ६५९) चिकित्सास्थानं भाषाटीकासमेतम् । निलापहम् ॥ ५४ ॥ द्राक्षालेहञ्च पूर्वोक्तं सर्पोंषि मधुराणि च ॥ यापनान्क्षीरवस्तींश्च शीलयेत्सानुवासनान् ॥ ५५ ॥ मार्डीकारिष्टयोगांश्च पिवेद्युक्त्त्याग्निवृद्धये ॥ कासिकं वाभयालेहं पिप्पलीमधुकं बलाम् ॥ ५६ ॥ पयसा च प्रयुञ्जीत यथादोषं यथाबलम् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir और हलीमकरोगी गिलोय के स्वरस और दूधमें साधित किये ॥ ५३ ॥ भैंसके घृत करके स्निग्धहुआ मनुष्य आमलोंके रसके संग निशोतको पीवे और विरिक्त हुआ मनुष्य स्वादु और पित्त तथा वातको नाशनेवाले || १४ || और पहिले कहे हुये द्राक्षावलेहको पीवै और मधुररूप वृतों को और प्राणों को करनेवाले दूधकी बस्तियों का और अनुवासन बस्तिका अभ्यास करै॥ ५५ ॥ मार्दीकमदिराको और अरिष्टके योगोंको अग्निकी वृद्धिके अर्थ पीवै अथवा खांसीकी चिकित्सा में कहुये हरडेके लेहका अभ्यास करै अथवा पीपल मुलहटी खरैहटी को ॥ ५६ ॥ दोष और बलके अनुसार दूधके संग प्रयुक्त करै ॥ पाण्डुरोगेषु कुशलः शोफोक्त क्रियाक्रमम् ॥ ५७ ॥ और कुशल चैद्य पांडुरोगों में शोजाकी चिकित्सामें कहेहुये क्रियाके क्रमको करै ॥ ५७ ॥ इति वेरीनिवासिवैद्यपंडित रविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायांचिकित्सितस्थाने पोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥ सप्तदशोऽध्यायः । अथातः श्वयथुचिकित्सितं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर शोफ अर्थात् शोजाचिकित्सितनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे ॥ सर्वत्र सर्वाङ्गसरे दोषजे श्वयथौ पुरा ॥ सामे विशोषितो भुक्त्वालघुकोष्णाम्भसा पिवेत् ॥१॥ नागरातिविषादारुविडङ्गे न्द्रयवोषणम् | अथवा विजयाशुण्ठीदेवदारुपुनर्नवम् ॥ २ ॥ नवायसं वा दोषाढ्यः शुद्धयै मूत्रहरीतकीः ॥ वराक्काथेन कटु काकम्भायत्र्यूषणानि वा ॥ ३ ॥ अथवा गुग्गुलं तद्वज्जतु वा शैलसम्भम् ॥ सब दोषोंसे उपजे और सब अंगों में फैलेहुये और कच्चे शोजे लंघनको करता हुआ मनुष्य हलका भोजन करके कछुक गरम किये For Private and Personal Use Only पहिले विशोषित अर्थात् पानी के संग पीवै ॥ १ ॥
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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