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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (३) पीछे आत्रेय आदि मुनियोंने अग्निवेश आदि मुनियोंको उपदेश किया और उन अग्निवेश आदि छह ६ मुनियोंने पृथक् पृथक् अर्थात् परस्परके ग्रन्थोंसे विलक्षण तन्त्र अर्थात् ग्रन्थोंको रचा; इस प्रकार अग्निवेश १ भेड २ जातूकर्ण ३ पराशर ४ हारीत ५ क्षारप ६ इन छह मुनियोंके नामसे छह ६ तन्त्र प्रसिद्ध हुए ॥ ___ अब ग्रन्थकार, जो उन पूर्व ऋषिलोगोंने अनेक युगोंके उपयोगी तन्त्रोंको रचा है तो अब इस तन्त्रका क्या प्रयोजन है इस प्रश्नका उत्तर देते हैं । तेभ्योऽतीति---- तेभ्योऽतिविप्रकीर्णेभ्यःप्रायः सारतरोच्चयः॥४॥ क्रियतेऽष्टागहृदयं नातिसंक्षेपविस्तरम् ॥ . . पीछे वाग्भटजी, तिन अतिविप्रकीर्ण अर्थात् किसीमें किसी पदार्थका निर्णय और किसीमें किसी पदार्थका निर्णय है, शल्यचिकित्सा सुश्रुतमें वर्णन कीहै वैसी अग्निवेशके ग्रन्थमें नहीं है; 'अर्धअंगकी चिकित्सा जैसी जनकप्रणीत ग्रन्थमें है बैसी अन्यमें नहीं इसी कारणसे एकतन्त्रसे सब चिकित्सा नहीं होसकती ऐसे इधर उधर गत तन्त्रोंसे बाहुल्यसे खेंचे हुये अतिशय सारोंका उच्चय और अति संक्षेपसे रहित तथा अति विस्तारसे रहित अष्टांगहृदयनामक ग्रन्थको रचतें हैं अष्टांगहृदय यह नाम ग्रन्थके गुणों के अनुसार है;जैसे अंगोंमें हृदय सार और मुख्य है ऐसे यह ग्रन्थ है। अब कौन वह आठ अङ्ग हैं इस प्रश्नका उत्तर देतेहैं । कायबालेतिकायबालग्रहो ङ्गशल्यदंष्ट्राजरावृषान् ॥५॥ अष्टावङ्गानि तस्याहुश्चिकित्सा येषु संश्रिता ॥ काय अर्थात् देह १ बाल २ ग्रह ३ ऊर्चाङ्ग ४ शल्य ५ दंष्ट्रा ६ जरा ७ वृष ८ यह आठ अङ्ग हैं। जो कोई ऐसी शंका करे कि सब चिकित्सा देहमेंही होती हैं फिर बाल ग्रह आदिकोंसे देहको अलग कैसे गिनाया। काय यह अर्थ तो यहां पूर्वोक्त विचारसेही सिद्ध है। उत्तर । ठीक है परन्तु " प्रकर्षों यथाभिरूपाय कन्या देया" यहांपर अभिरूपको कन्या देना ऐसे कहनेसे अतिशयित अभिरूपको देना ऐसा बोध होता है । इसही रीतिसे यहांपर भी कायके कथनसे प्रकृष्ट जो काय अर्थात् सम्पूर्णधातुवाला देह अर्थात् यौवनअवस्थावाला शरीर समझा जाता है। तथा 'चि' चयने इस धातुसे कायशब्दं व्युत्पादित होताहै । 'चीयत प्रशस्तदोषधातुमलैरिति कायः' । जब दोष, और धातु और मल इनके सहित अच्छीतरह देह प्रतीत होनेलगे तब देहकी काय संज्ञा होतीहै, ऐसा शब्दसे भी तात्पर्य्य मिलताहै । सो ऐसे जाना चाहिये कि सब शरीरके उपतापक आम पक्काशयस्थानोंसे उत्पन्न हुये ज्वर १ पदोंके समुदायको वाक्य कहते हैं । तैसे वाक्योंके समुदायको प्रकरण । और प्रकरणों के समुदायको अध्याय। और अध्यायोंके समुदायको स्थान और स्थानोंके समुदायको तन्त्र कहते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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