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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ( ५३४) www.kobatirth.org अष्टाङ्गहृदये सप्तमोऽध्यायः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथातो मदात्ययचिकित्सितं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर मदात्यय चिकित्सितनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे || यं दोषमधिकं पश्येत्तस्यादौ प्रतिकारयेत् ॥ कफस्थानानुपवर्ष्या वा तुल्यदोषे मदात्यये ॥ १ ॥ पित्तमारुतपर्य्यन्तः प्रायेण हि मदात्ययः ॥ जिस बढेहुये बातआदि दोषको जानै तिसकी आदिमेंही उसकी चिकित्सा करे अथवा तुल्यदोषवाले मदात्यय रोगमें कफके स्थानकी आनुपूर्विता करके प्रतिकारको करै ॥ १ ॥ विशेषता करके पित्त और वायु के अन्तवाला मदात्ययरोग होता है ॥ नमिथ्यातिपीतेन यो व्याधिरुपजायते ॥ २ ॥ समर्पीतेन तेनैव स मद्येनोपशाम्यति ॥ मद्यस्य विषसादृश्याद्विषं तत्कर्ष वृत्तिभिः॥ ३ ॥ तीक्ष्णादिभिर्गुणैर्योगाद्विषान्तरमपेक्षते ॥ और हीन तथा मिथ्या और अत्यन्त पान किये मद्यकरके जो व्याधि उपजती है ॥ २ ॥ बह समान मात्रा करके पान किये तिसी मद्य करके शान्त होता है, अर्थात् जबतक दृष्टिमें संभ्रातिऔर मनमें क्षोभ न हो तबतक मद पीनेवालों को उससे निवृत्त होना चाहिये यह समान मात्र हि जिस मार्दीक मधु अथवा गौडी आदिके पान करनेसे जो व्याधि होजाती है वह उसीसे शान्त होजाती है क्योंकि मद्य विषके समान है जो तीक्ष्णादि दश गुण विषमें हैं उतनेही गुण मद्यमें हैं इससे मदकी मदसे शांति होती है जो कहो कि मद विषके समान हैं तो जैसे विपकी विपान्तरसे शान्ति है इसी प्रकार मद्यकीभी मद्यान्तर से शान्ति हो सकती है ॥ ॥ इस पर कहते हैं कि विपमें वे दश गुण तीक्ष्ण शक्तिसे रहते हैं इससे उनके योग सम्बन्धसे विषान्तरकी अपेक्षा होती है उसके बिना रोगकी शान्ति नहीं होती मद्यहीनवृत्तिवाले दश गुणों के योगसे मद्यान्तरकी अपेक्षा नहीं करते हैं इस कारण हीन और उत्कर्ष गुणवालोंकी साम्यता नहीं हो सकती इससे मधमें दूसरों से विलक्षणता है | तीक्ष्णोष्णेनातिमात्रेण पीतेनाम्लविदाहिना ॥ ४॥ मद्येनान्नरसक्दो विदग्धःक्षारतां गतः ॥ यान्कुर्य्यान्मन्दतृण्मोहज्वरान्तर्दाहविभ्रमान् ||५||मोत्क्लिष्टेन दोषेण रुद्रः स्रोतस्सु मारुतः ॥ सुतीत्रा वेदानायाश्च शिरस्यस्थिषु सन्धिषु ॥ ६ ॥ जीममद्यदोषस्य प्रकांक्षालाघवे सति ॥ यौगिकं विधिवद्युक्तं . मद्यमेव निहन्ति तान् ॥ ७ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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