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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५२८) अष्टाङ्गादये महालेहको पकावै ॥ ३८ ॥ परंतु स्नेहसे चौथाई भाग दही और यथालाभ कांजी आदिको मिलाके पकावै निरंतर सेवित किया यह महास्नेह तर्पण है बृंहणहै बलमें हितहे वातरोग और हृद्रोगको नाशताहै ॥ ३९ ॥ दीप्तेऽग्नौ सद्रवायामे हृद्रोगे वातिके हितम्॥क्षीरं दधिगुडः सपिरौदकानूपमामिषम्॥४०॥एतान्येव च वया॑नि हृद्रोगेषु चतुर्वपि।शेषेषु स्तम्भजाड्यामसंयुक्तेऽपि च वातिके ॥४१॥ कफानुबन्धे तस्मिंस्तु रूक्षोष्णामाचरेक्रियाम् ॥ पैत्ते द्राक्षे । क्षुनिर्याससिताक्षौद्रपरूषकैः॥४२॥ युक्तो विरेको हृद्यः स्या क्रमः शुद्धे च पित्तहा॥क्षतपित्तज्वरोक्तं च बाह्यान्तःपरिमार्जनम् ॥ ४३ ॥ कट्टीमधुककल्कं च पिबेत्ससितमम्भसा ॥ दीपित हुई अग्निसे संयुक्त और द्रव तथा आक्षेपसे संयुक्त और वातसे दूषित हृद्रोगमें दूध दही गुड घृत मछली और अनूपदेशका मांस ॥ ४० ॥ और इस वातज हृद्रोगको वार्जके अन्य शेष रहे चार प्रकारके हृद्रोगोंमें दूध दही घृत गुड मछली और शूकरका मांस ये सब वर्जित हैं ॥ ४१ ॥ और स्तंभ तथा जडता तथा आमसे संयुक्त हुये वातज हृद्रोगमेंभी ये दूध आदि सब वर्जित है कफको सहायतावाले वातज हृद्रोगमें रूक्ष और गरम क्रियाको सेवै और पित्तके हृद्रोगमें दाख ईखका रस मिसरी शहद फालसा इन्होंकरके ॥ ४२ ॥ युक्त और हृदयमें हित जुलाब देना और शुद्धिके पश्चात पित्तको नाशनेवाला क्रम करना और क्षतमें तथा पित्तवरमें भीतरसे और बाहिरसे जो शुद्धि कहीहै वहभी यहां करनी योग्यहै ॥ ४३ ॥ कुटकी और मुलहटीके कल्कको खांडसे संयुक्त कर पानीके संग पीवै ॥ श्रेयसीशर्कराद्राक्षाजीवकर्षभकोत्पलैः॥४४॥बलाखर्जुरकाकोलीमेदायुग्मैश्च साधितम्॥सक्षीरं माहिषं सर्पिः पित्तहृद्रोगनाशनम्॥४५॥प्रपौण्डरीकमधुकबिसग्रन्थिकसेरुकाः॥ सशुण्ठीशैवलास्ताभिः सक्षीरं विपचेघृतम्॥४६॥शीतंसमधु तच्चेष्टं स्वादुवर्गकृतं च यत्॥बस्ति च दद्यात्सझौद्रं तैलं मधुकसाधितम्४७॥ और गजपपिली खांड दाख जीवक ऋषभक कमल इन्होंकरके ।। ४४ ॥ और खरैहटी खिजूर काकोली क्षीरकाकोली मेदा महामेदा इन्होंकरके और भैसके दूधसे साधित किया भैंसका घृत पित्तज हृद्रोगको नाशता है ॥ ४५ ॥ पौंडा मुलहटी कमल कीडंडी पीपलामूल कसेरू सूंठ सेवता और दूधके सहित पकायेहुए घृतको ॥ ४६ ॥ शीतल और शहदसे संयुक्त कर सेवै और दाख आदि स्वादुर्ग करके कियाहुआ पदार्थ और मुलहटीसे साधित और शहदसे युक्त तेलको तथा बस्तिकर्मको देवै ॥ ४७ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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