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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४३६ ) अष्टाङ्गहृदये वायुसे रूक्ष लाल श्वित्र होता है और पित्तसे कमलके पत्तोंकी तरह तांबेके वर्ण और दाहको करनेवाला और रोमोंको नाशनेवाला श्वित्र होता है और कफसे सफेद कररा भारी || ३८ ॥ और खाज संयुक्त श्वित्र होता है और क्रमसे वातज श्वित्र रक्तमें वसता है और पित्तज श्वित्र मांसमें वसता है और कफका श्वित्र मेद में वसता है वात आदि दोषोंसे उत्पन्न होनेवाला और रक्तआदि धातुओंमें वसनेवाला श्वित्र उत्तरोत्तर क्रमसे कष्टसाध्य कहा है ॥ ३९ ॥ काले रामवाला और कररेपनेसे रहित और आपस में नहीं मिला हुवा नवीन और अग्निसे विना दग्ध हुये उपजा वाश्वित्ररोग साध्य होता है और इससे विपरीत ॥ ४० ॥ अर्थात् गुदा हाथके तलुए होठ में उपजा नवीनभी श्वित्र रोग असाध्य है और विशेषताकरके स्पर्श, संग भोजन एक शय्या आदिके सेवनेसे ॥ ४१ ॥ सब रोग रोगी के शरीर से दूसरे पुरुषके लग जाते हैं और नेत्ररोग और त्वचाका विकार ये विशेष करके दूसरे मनुष्य के शरीरमें लाग जाते हैं ॥ कृमयस्तु द्विधा प्रोक्ता बाह्याभ्यन्तरभेदतः ॥४२॥ बहिर्मलक फासृग्विड्जन्मभेदाच्चतुर्विधाः ॥ नामतो विंशतिविधा वाद्या स्तत्रागुद्भवाः ॥ ४३ ॥ तिलप्रमाणसंस्थानवर्णाः केशाम्वरा श्रयाः ॥ बहुपादाश्च सूक्ष्माश्च यूका लिक्षाश्च नामतः॥ ४४ ॥ द्विधा ते कोठापटिका कण्डूगण्डान्प्रकुर्वते ॥ कुष्ठैकहेतवोऽन्तर्जाः श्लेष्मास्तेषु चाधिकम् ॥४५॥ मधुरान्नगुडक्षीरदधिसक्तुनवौ दनैः॥शकृज्जा बहुविड्धान्यपर्णशाकोलकादिभिः ॥ ४६ ॥ कफा दामाशये जाता वृद्धाः सर्पन्ति सर्वतः। पृथुवननिभाः केचित्के चिद्गण्डूपदोपमाः ॥ ४७ ॥ रूढधान्यानुराकारास्तनुदीर्धास्त थाणवः ॥ श्वेतास्ताम्रावहासाश्च नामतः सप्तधा तु ते ॥४८॥ अन्त्रादा उदराविष्टा हृदयादा महाकुहाः ॥ कुरवो दर्भकु सुमाः सुगन्धास्ते च कुर्वते ॥ ४९ ॥ हृल्लासमास्यस्रवणमविपाकम रोचकम्॥ मूर्च्छाच्छर्दिज्वरानाहकाक्षवथुपीनसान् ॥ ५० ॥ कृमि रोग दो प्रकारका कहा है, एक शरीर के भीतर रहनेवाला, दूसरा शरीरके बाहिर रहनेवाला॥४२॥ बाहिर मल अर्थात् वाल और वात आदिसे उपजे कफसे उपजे, रक्तसे उपजे विष्ठा से उपजे इन भेदोंसे कीडे चार प्रकारके होते हैं और नामसे कीडे बीस प्रकार के होते हैं, तिन्हों में रक्तसे उपजे अर्थात् शरीर के बाहिर रहनेवाले कीडे कहाते हैं ||४३|| तिलके प्रमाण स्थान और वर्णवाले वाल और कपडोंमें आश्रित हुए और बहुत से पैरोंवाले सूक्ष्म जूं लीख नामोंसे ॥ ४४ ॥ दो प्रकारके हैं ये कोठ रोग फुनसी खाज गंडरोग इन्होंको करते हैं और शरीर के भीतर रहनेवाले कीडे कुष्ठके तुल्य निदानवाले होते हैं और तिन शरीरके भीतर रहनेवाले कीडों के मध्य में उपजे For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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