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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४२०) अष्टाङ्गहृदये- . प्लीहा वृद्धिको प्राप्त होता है ॥ २३ ॥ अथवा रसादिधातुओंसे बढेहुये रक्तको करके तिस प्लीहाको बढाता है, परन्तु अष्टीलाकीतरह अत्यन्त कठिन प्राकृत कछुआके पृष्ठभागकीसमान आकृतीवाली ॥२४॥और क्रमकरके कुक्षिमें बढतीहुई वह प्लीहा पेटमें प्राप्त होती है, परन्तु श्वास,खांसी,पिपासा, मुखका विरसपना, अफारा, शूल, ज्वर, इन्होंकरके ॥ २५ ॥ और पांडुपना, छार्द, मूर्छा, दाह मोहसे संयुक्त और रक्तकांतिवाली और वर्णसे रहित और नीली तथा पीली पंक्तियोंवाली पेटमें वह प्लीहा प्राप्त होती है ॥ २६ ॥ प्लीहोदररोगमें उदावर्त, शूल, अफारेसे मोह, तृषा, दाह, उबरसे भारीपन, अरुची, कठिनपनासे क्रमसे वातआदि दोषोंको जानै ॥ २७ ॥ दाहनी पशलीसे भ्रष्टहुआ यकृत् अथवा अपने हेतुसे बढाहुआ रक्त यकृत्को बढाता है पीछे वह बढाहुआ यकृत् . प्लीहाकी तरह पेटमें प्राप्त होता है ।। पक्ष्मवालैः सहान्नेन भुक्तैर्बद्धायने गुदे॥२८॥दुर्नामभिरुदावतरन्यैर्वान्त्रोपलेपिभिः॥ वर्चःपित्तकफान्रुद्धा करोति कुपितोऽ- . निलः॥२९॥ अपानो जठरं तेन स्यु हतृड्ज्वरक्षवाः॥ कासश्वासोरुसदनं शिरोहृन्नाभिपायुरुक्॥३०॥ मलसङ्गोऽरुचिश्छर्दिरुदरंमूढमारुतम्॥स्थिरं नीलारुणशिराराजिवद्धेमराजि वा ॥३१॥ नाभेरुपरि च प्रायो गोपुच्छाकृति जायते॥ ' पलक बाल आदिके संग मिलेहुये अन्नके खानेसे ॥ २८ ॥ और बवासीरके मस्सोंकरके और उदावों करके अथवा दही, चावल, उडद, आदि उपलेपी द्रव्योंसे बध्यमान हुई गुदामें कुपित हुआ अपानवायु विष्ठा, पित्त, कफको रोकिकर ॥ ॥ २९ ॥ बद्धोदररोगको करता है तिससे दाह, तृषा, ज्वर, छींक, खांसी, श्वास, जांघोंकी शिथिलता और शिर, नाभि, हृदय, गुदामें शूल ॥३०॥ मलोंकी अप्रवृत्ति, अरुचि, छर्दि, बाहिर निकलनेवाला और स्थिर अथवा नीली और रक्त नांडियोंकी पंक्तियोंकरके बन्धाहुआ अथवा पंक्तियोंसे रहित ॥ ३१ ॥ और प्रायकरके नाभिके ऊपर गोपुच्छकी आकृति समान उदर होजाता है ॥ अस्थ्यादिशल्यैः सान्नैश्चभुक्तैरत्यशनेन वा॥३२॥भिद्यते पच्य. ते वान्त्रं तच्छिद्रैश्च स्रवन्बहिः॥ आम एव गुदादेति ततोऽ ल्पाल्पं सविड्सः॥३३॥ तुल्यः कुणपगन्धेन पिच्छिलःपीतलोहितः ॥ शेषश्चापूर्य जठरं जठरं घोरमावहेत् ॥३४॥वर्धयेत्तदधो नाभेराशु चैति जलात्मताम् ॥ उद्रिक्तदोषरूपं च व्याप्तं च श्वासतृभ्रमैः॥३५॥ छिद्रोदरमिदं प्राहुः परिस्रावीति चापरे ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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