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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निदानस्थानं भाषाटीकासमेतम् । . (४१९) वृद्धि और हासकी, तरह तोदसे सहित और भेदरूप तथा महीन,काली नाडियोंकरके व्याप्त॥१४॥ पेटका होजाना और फूलीहुई मसककी तरह आहत हुये शब्दको करताहुआ और शूल तथा शब्दको करताहुआ और सबतर्फको गमन करनेवाला वायु वहाँ विचरता है ॥ ॥ १५ ॥ पित्तसे उपजे उदररोगमें ज्वर मूर्छा, दाह, तृषा, मुखका कडुआपन, भ्रम, अतिसार, त्वचा आदिका पीलापन ॥ १६ ॥ और हरी, पीली तथा तांबाके रंगवाली नाडियोंसे बन्धाहुआ पसीनासे सहित गाईसे सहित और दग्ध होताहुआ और धुएँकी तरह आचरितहुआ और कोमल स्पर्शहुआ और तत्काल पकजानेवाला उपतप्त हुआ उदर होजाताहै ॥१७॥ कफसे उपजे उदररोगमें अंगोंकी शिथिलता शयन, शोजा, भारीपन, नींद, उत्क्लेश, अरुचि, श्वास, खांसी, त्वचाआदिका सफेदपनासे उपजता है ॥ १८ ॥ और निश्चलरूप, कोमलस्पर्शवाला सफेद पंक्तियोंसे व्याप्त, बडा, चिरकालमें बढनेवाला कठिन और शीतल स्पर्शवाला, भारी, स्थिर पेट होजाता है ॥ १९ ॥ गरदूषीविषाद्यैश्च सरक्ताः सञ्चिता मलाः ॥२०॥ कोष्टं प्राप्य विकुर्वाणाः शोपमू भ्रमान्वितम् ॥ कुर्युत्रिलिंगमुदरं शीघपाकंसुदारुणम्॥२१॥वाधते तच्च सुतरां शीतवाताभ्रदर्शन। त्रिदोषको कोपित करनेवाले तिस तिस पदार्थोकरके और स्त्रियोंकरके दियेहुये आर्तवके मलोंकरके और विष नेत्रमल विष विरुद्ध भोजन करके रक्त सहित संचितहुये वातआदि दोष ॥ २० ॥ कोष्ठको प्राप्तहोकर और विकारको करतेहुये शोक, मूर्छा, भ्रमसे, युक्त शीघ्रपाकवाले और महादारुणरूप तीन चिह्नोंवाले उदरको करते हैं ॥२१॥ वह उदररोग शीत, वात मेघके दखिनेमें अत्यन्त पीडित करता है । अत्याशितस्य संक्षोभाद्यानपानादिचेष्टितैः ॥ २२ ॥ अतिव्यवायकाध्ववंमनव्याधिकर्शनैः॥ वामपाश्र्वाश्रितः प्लीहाच्युतः स्थानाद्विवर्धते ॥२३॥ शोणितं वा रसादिभ्यो विवृद्धं तं विवर्द्धयेत्॥ सोऽष्ठीलेवातिकठिनः प्राकृतः कूर्मपृष्ठवत्॥२४॥ क्रमेण वर्धमानश्चकुक्षावुदरमावहेत् ॥श्वासकासपिपासास्यवैरस्याध्मानरुग्ज्वरैः ॥२५॥ पाण्डुत्वच्छर्दिमूर्छार्तिदाहमोहैश्च संयुतम् ॥ अरुणाभं विवर्णं वा नीलहारिद्रराजिमत्॥२६॥ उदावर्तरुगानाहर्मोहतृङ्दहनज्वरैः॥ गौरवारुचिकाठिन्यर्विद्यात्तत्र मलान्क्रमात् ॥ २७ ॥ प्लीहवदाक्षिणात्पार्धात्कुर्य्याद्यकृदपि च्युतम् ॥ और अत्यन्त भोजन करनेवालेके गमन आदि चेष्टाओंकरके ॥२२॥ जो संक्षोभ है तथा मैथुन कर्म मार्गगमन, वमन, व्याधिकर्षणके संक्षोभसे वामी पशलीमें आश्रित और स्थानसे भ्रष्टहुआ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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