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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४०२) अष्टाङ्गहृदयेबद्धहुआ मूत्र बाहिर नहीं निकसता है और अल्पशूलको करता है तिसको मूत्रातीत कहते हैं और मूत्रके वेगको रोकनेसे प्रतिहत हुआ और वातकरके उदावर्तित हुआ मूत्र जब ॥ २७ ॥ नाभिके नीचे पेटको पूरित करता है तब तीब्रशूल, अफारा, अपाक, मलसंग्रहको करता है॥२८॥ तिसको मूत्रजठर कहते हैं, और मूत्रके द्वारमें दोषकरके अथवा वातकरके जब फेंकाहुआ अल्पमूत्र बस्तिमें अथवा नालमें अथवा मणीकंदमें ॥ २९ ॥ स्थित होके हौलेहौले पीडास सहित अथवा पीडासे रहित मूत्र झिरता है; विच्छिन्नरूप छुटेहुये मूत्रके शेष तिसकरके भारी लिंग वाले मनुष्यके तिसरोगको मूत्रोत्संग कहते हैं ॥ ३० ॥ अन्तर्बस्तिमुखे वृत्तः स्थिरोऽल्पः सहसा भवेत्॥ अश्मरीतुल्य रुग्ग्रन्थिमंत्रग्रन्थिः स उच्यते ॥३१॥ मूत्रितस्य स्त्रियं यातो वायुना शुक्रमुद्धतम् ॥ स्थानाच्युतं मूत्रयतः प्राक्पश्चा द्वा प्रवर्त्तते ॥३२॥ भस्मोदकप्रतीकाशं मूत्रशुक्रं तदुच्यते॥ रूक्षदुर्बलयोर्वातादुदावृत्तं शकृयदा ॥ ३३ ॥ मूत्रस्रोतोनुपर्योति संसृष्टं शकृता तदा ॥ मूत्रं विट्तुल्यगन्धं स्याद्वितिघातं तमादिशेत् ॥ ३४ ॥ बस्तिके मुखके मध्यमें गोल तथा स्थिर और छोटी पथरीके समान शूल करनेवाली ग्रंथितत्काल होवे तिसको मूत्रग्रंथी कहते हैं ॥ ३१ ॥ जिसे मत्रके वेग लगाहो तथा स्त्रीमें गमन करनेवाला और मूत्रको करनेवाला इन मनुष्योंके स्थानसे भ्रष्ट हुआ वीर्य वायु करके उद्धतभावको प्राप्तहो ॥ ३२ ॥ भस्मके पानी के समान कांतिवाला वह वीर्य मूत्रसे पहिले अथवा पीछे प्रवृत्त होता है तिसको मूत्रशुक्र कहते हैं रूक्ष और दुर्बल मनुष्यके वायुसे पीडितहुई विष्ठा जब ॥ ३३ ॥ मूत्रके स्रोतके चायेंतर्फ आजाता है तब विष्ठाकरके संसृष्टहुआ मूत्र विष्टाके समान गंधवाला होजाता है तस्को विविघात कहते हैं ॥ ३४ ॥ पित्तं व्यायामतीक्ष्णोष्णभोजनाध्वातपादिभिः प्रवृद्धं वायुना क्षिप्तं बस्त्युपस्थार्तिदाहवत् ॥३५॥ मूत्रं प्रवर्तयेत्पीत सरक्तं रक्तमेव वा ॥ उष्णं पुनः पुनः कृच्छ्रादुष्णवातं वदति तम् ॥ ३६ ॥ रूक्षस्य क्लान्तदेहस्य बस्तिस्थौ पित्तमारुतौ ॥ मूत्रक्षयं सरुग्दाहं जनयेतां तदाह्वयम् ॥ ३७॥ व्यायाम तीक्ष्ण और गरम भोजन, मार्गगमन और घाम आदिकरके बढाहुआ और वायुकरके प्रेरित किया पित्त बस्ति और लिंगमें शूल तथा दावाला ॥३५॥ पीला तथा रक्तसे संयुक्त रक्त युक्त मूत्रको बारंबार गरम गरम कष्टसे प्रवृत्त करे है, तिसको उष्णवात कहते हैं ॥३६॥और रूक्षक तथा For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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