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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४००) अष्टाङ्गहृदये तिन पथरियोंमें वातसे उपजी पथरी होवे अत्यंत पीडितहुआ मनुष्य दांतोंको चाबता है और काँपता है और लिंगको हाथोंसे मलता है तथा नाभिको हाथोंसे पीडित करता है और निरंतर दुःखरूप शब्दको कहता रहता है ॥ ११ ॥ और वायु सहित विष्टाको छोडता है और बारंबार और विंदु बिंदु करके मूत्रको उतारता है और इस मनुष्यके कांटोंसे व्याप्तहुई और रूखी और धूम्रवर्णकी पथरी होती है ॥ १२ ॥ पित्तकरके उपजी पथरीकरके पच्यमानकी तरह और संतापसे संयुक्त बस्तिस्थान दग्ध होता है और भिलावाकी गुठलीके समान आकारवाली रक्त, पीली, कृष्ण छायावाली पथरी होती है ॥ १३ ॥ कफकरके उपजी पथरीमें पीडितहुयेकी तरह शीतल और भारी बस्तिस्थान' होजाता है स्थूल कोमल और शहदके समान वर्णवाली अथवा सफेद पथरी होती हैं ॥ १४ ॥ एता भवन्ति बालानां तेषामेवं च भूयसा॥आश्रयोपचयाल्पत्वाद्ग्रहणाहरणे सुखाः॥१५॥ शुक्राइमरी तु महतां जायते शुक्रधारणात् ॥ स्थानाच्युतममुक्तं हि मुष्कयोरन्तरेऽनिलः॥ ॥ १६॥ शोषयत्युपसंगृह्य शुक्रं तच्छुष्कमश्मरी ॥ वस्तिरुक् कृच्छ्रमूत्रत्वमुष्कश्वयथुकारिणी ॥१७ ॥ तस्यामुत्पन्नमात्रायां शुक्रमेति विलीयते ॥ पीडिते त्ववकाशेऽस्मिन्नश्मर्येव च शर्करा ॥१८॥ अणुशो वायुना भिन्ना सात्वस्मिन्ननुलोमगे॥ निरेति सहमूत्रेण प्रतिलोमे विबध्यते ॥ १९॥ और ये तीनों पथरी बालकोहीके होती हैं और तिन्हीं बालकोंके उपजी पथरियां आधार और वृद्धिके अल्पपनेसे विशेषताकरके शस्त्रआदिके द्वारा ग्रहण करने और निकासनेमें सुखरूप होजाती हैं॥ १५ ॥ और बडे मनुष्योंके वीर्यको धारनेसे शुक्राश्मरी अर्थात् वीर्यसंबंधी पथरी उपजती है स्थानसे परिभ्रष्ट और नहीं त्यक्त किये वीर्यको अंडकोशोंके मध्यमें वायु ॥१६॥सब तर्फसे ग्रहण कर सुखाताहै तब वह सूखाहुआ वीर्य पथरी कहाता है यह बस्तिमें शूल और मूत्रकृच्छ्रपना और पोतोंमें शोजाको करती है।॥१७॥और उत्पन्न मात्र हुई तिस वर्यिकी पथरीमें वीर्य आवता है और विशेषकरके लीन होजाता है, अर्थात् कठिनपनेसे सुंदर श्लेषित होजाता है, परंतु पीडितहुये इस अवकाशमें पथरीही शर्करा होजाती है ॥ १८ ॥ वायुकरके महान भेदित की पथरी शर्करा होती है और अनुलोमभावको प्राप्तहुये वायुमें वह शर्करा मूत्रके साथ निकलती है और प्रतिलोमहुये वायुमें वह शर्करा नहीं निकलती ॥ १९॥ मूत्रसन्धारिणः कुर्याद्रुद्धा बस्तेमुखं मरुत् ॥ मूत्रसङ्गं रुजं कंडूं कदाचिच्च स्वधामतः॥२०॥प्रच्याव्य बस्तिमुवृत्तं गर्भाभं स्थूल For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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