SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३२६) अष्टाङ्गहृदयेचंद्रमाको देखै वह निश्चय मरता है ।। ३१ ॥ जो जागता हुआ मनुष्य राक्षस, गंधर्व, प्रेत,पिशाच इन्होंको और राक्षस पिशाचसे व्यतिरिक्त अनेकरूपवाले रूपको जो देख वह मरजाता है ।। ३२॥ जो मनुष्य सप्तर्षियोंके समीपमें स्थित अरुंधतीको नहीं देखै अथवा अरुंधती अर्थात् अपनी जीभको नहीं देखै और ध्रुव अर्थात् नासिकाके अग्रभागको नहीं देखै अथवा ध्रुवतारेको नहीं देखै और आकाशगंगाको नहीं देखै वह मनुष्य एकवर्षके भीतर मृत्युको प्राप्त होता है ॥ ३३ ॥ मेघतोयौघनिर्घोषवीणापणववेणुजान् ॥ शृणोत्यन्यांश्च यः शब्दानसतो न सतोऽपि वा ॥ ३४॥ निष्पीड्य कर्णौ शृणुयान्न यो धुकधुकस्वनम् ॥ तद्वद्गन्धरसस्पर्शान्मन्यते यो विपययात् ॥३५॥ सर्वशो वा न यो यश्च दीपगन्धंन जिघति ॥ विधिना यस्य दोषाय स्वास्थ्यायाविधिना रसाः ॥३६ ॥ यः पांसुनेव कीर्णाङ्गो योऽङ्गघातं न वेत्ति वा ॥अन्तरेण तपस्तीनं योगं वा विधिपूर्वकम् ॥ ३७॥ जानात्यतीन्द्रियं यश्च तेषा मरणमादिशेत् ॥ मेघ, पानीका समूह, निर्घोष, वीणा, नगारा, वांशली इन आदिसे उपजेहुये विद्यमान शब्दोंको नहीं सुनै तथा नहीं उपजेहुये इन्हींशब्दोंको सुनै वह मनुष्य मरजाताहै ॥ ३४ ॥ जो मनुष्य कानोंको अंगुलीकरके ढकके धुक् धुक् नहीं सुनता और जो उत्पन्नहुये गंध और रसके स्पर्शको नहीं मानता और अविद्यमान हुये गंध और रसके स्पर्शको मानता है ॥ ३५ ॥ और जो सब प्रकारसे दीपकके गंधको नहीं सूंघता और जिसके विधिकरके प्रयुक्त किये रस दोषोंके अर्थ होजाते हैं और जिसके नहींविधिकरके प्रयुक्त किये रस आरोग्यके अर्थ होते हैं ।। ३६ ।। और जो धूलीकरके अवकीर्ण हुये अंगोंको मानता है और जो अपने अंगके घातको नहीं जानता और जो उपतपके विना विधिपूर्वक योगको ॥ ३७ ॥ और इंद्रियोंकरके अगोचररूप स्वर्गआदिको जानता है, तिन सब मनुष्योंका मरण कहो ॥ हीनो दीनः स्वरोऽव्यक्तो यस्य स्याद्द्दोऽपि वा ॥ ३८ ॥ सहसा यो विमुह्येद्वा विवक्षुर्न स जीवति ॥ स्वरस्य दुर्बलीभावं हानि वा बलवर्णयोः ॥ ३९ ॥ रोगवृद्धिमयुक्त्या च दृष्ट्वा मरणमादिशेत् ॥ अपस्वरं भाषमाणं प्राप्तं मरणमात्मनः॥४०॥ श्रोतारं चास्य शब्दस्य दूरतः परिवर्जयेत् ॥ संस्थानेन प्रमाणेन वर्णेन प्रभयाऽपि वा ॥४१॥ छाया विवतते यस्य स्वप्नेऽपि प्रेत एव सः॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy