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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३२४) अष्टाङ्गहृदयेजिह्वा श्यावा मुखं पूति सव्यमक्षि निमज्जति ॥ १९ ॥ खगा वा मूर्ध्नि लीयन्ते यस्य तं परिवर्जयेत्॥यस्य स्नातानुलिप्तस्य पूर्व शुष्यत्युरो भृशम् ॥ २०॥ आर्देषु सर्वगात्रेषु सोऽद्धमासं न जीवति॥ और जिस मनुष्यके हरितकांतिवाली नाडियां होजावें और आच्छादित हुये रोमकूप होजावें ॥ ॥ १६ ॥ वह मनुष्य खट्टे पदार्थकी अभिलाषा करनेवाला पित्तरोगसे मृत्युको प्राप्त होता है और जिस मनुष्यके गोवरके चूर्णके समान कांतिवाला और स्नेहसे संयुक्त चूर्ण शिरपै अथवा मुखौ ॥ १७ ॥ अथबा जिसके शिरपै धूमां निकसै तिस मनुष्यका एक महीना जीवना है; जिस मनुष्यके शिरमें अथवा भ्रुकुटियोंमें नवीन मंडल होजावे तो ॥ १८ ॥ स्वस्थ मनुष्यकी छः रात्रिमें और रोगीकी तीन रात्रिमें मृत्युको करते हैं और धूम्रवर्णवाली जीभ होजाय, दुर्गधवाला मुख होजाय, बायाँ नेत्र भीतरको प्रवेश करै ॥ १९ ॥ अथबा पक्षी शिरपै आके वास करै, जिस रोगीके ऐसे लक्षण होवें तिसकी वैद्य चिकित्सा न करै और स्नान करके पीछे चंदन आदिका अनुलेप किये मनुष्यके पहिले छाती अत्यन्त सूख जावे ॥ २०॥ और सब अंग गीले रहैं ऐसा मनुथ्य पंद्रह दिनमें मरजाता है ।। अकस्माद्युगपद्गात्रे वर्गों प्राकृतवैकृतौ ॥ २१॥ तथैवोपचयग्लानिरीक्ष्यस्नेहादि मृत्यवे ॥ यस्य स्फुटेयुरंगुल्यो नाकृष्टा न स जीवति ॥२२॥क्षवकासादिषु तथा यस्याऽपूर्वो ध्वनिर्भवेत् ॥ ह्रस्वो दीपोंति वोलासः पूतिः सुरभिरेव वा॥२३॥आप्लुतानाप्लुते काये यस्य गन्धोऽतिमानु षः॥ मलवस्त्रवणादौ वा वर्षान्तं तस्य जीवितम् ॥२४॥ और कारणके विना जिसके शरीरमें आपहीआप गौर और श्यामवर्ण होजावे तो मनुष्यकी मृत्यु जानो ॥ २१ ॥ जिस मनुष्यके शरीरमें कारणके विना आपही वृद्धि ग्लानि रूखापन, चिकनापनआदि ये एकवारमें उपजै तो मनुष्यकी मृत्यु कहो और जिस मनुष्यकी खेंचीहुई अंगुली स्पष्ट शब्दको नहीं करें वह मनुष्य मरजाता है ॥ २२ ॥ जिस मनुष्यके छींक और खांसीआदिमें अलौकिक शब्द हो वह नहीं जीवता है और जिस मनुष्यके अत्यन्त हस्व व अत्यन्त लंबा ऐसा भीतरको जानेवाला श्वास हो और जिसकी गंधमें दुर्गंध उपजै वह मनुष्य नहीं जीवता है ॥२३ ।। और जिसके स्नान किये अथवा नहीं स्नान किये शरीरमें मनुष्योंको उल्लंघन करनेवाला गन्ध उपजै अथवा जिसके मल वस्त्र घाव इन आदिकोंमें पूर्वोक्त गंध उपजै वह मनुष्य एक वर्षतक जी सक्ता है ॥ २४ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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