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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शरीरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । । (२६७) अस्मिता सुखकी इच्छाका राग दुखःका अनुशायी द्वेष आदिसे प्रेरित हुआ गर्भमें जीव प्राप्त होता है कर्म क्लेशसे वियुक्त नहीं, इसीसे शास्त्रोंमें कहा है कि रागद्वेषहीनोंका जन्म नहीं होता है सो कर्तव्यतासाधनके वशसे प्राप्त होता है जैसे मंथनादि सामग्रीसे अरणीमेंसे अग्नि निकलती है ॥१॥ बीजात्मकैर्महाभूतैः सूक्ष्मैः सत्त्वानुगैश्च सः॥ मातुश्चाहाररसजैः क्रमात्कुक्षौ विवर्द्धते ॥२॥ गर्भको उपजानेमें समर्थ भाववाले और सूक्ष्म और सत्वगुणके अनुगत ऐसे आकाशादि पंचमहाभूतोंकरके माताके आहार और रसकरके माताकी कूखमें वह गर्भ बढता रहता है सत्वकी अधिकतावाले आकाश, तम-रजकी बहुतायतवाले वायु सत्वरजकी बहुतायतवाले अग्नि, सत्वतमकी अधिकतावाले जल, तमकी बहुतायतवाली पृथ्वीसे, वह गर्भ कुक्षिमें बढ़ता है वह अतीन्द्रिय भूतोंके भाव सदा आत्मामें लगे रहते हैं उनसे और माताके आहारसे गर्भ बढता है ॥ २ ॥ तेजो यथार्करश्मीनां स्फटिकेन तिरस्कृतम् ॥ नेन्धनं दृश्यते गच्छत्सत्त्वो गर्भाशयं तथा ॥३॥ __ जैसे स्फटिक अर्थात् बिक्लौरकरके तिरस्कृत हुआ सूर्यकी किरणोंका तेज स्फटिकके नीचे स्थित हुआ और चलता हुआ नहीं दीखता है तैसे यह जीवभी गर्भाशयको प्राप्त होता नहीं दीखता॥३॥ कारणानुविधायित्वात्कार्याणां तत्स्वभावता॥ . नानायोन्याकृतीः सत्त्वो धत्तेऽतो द्रुतलोहवत् ॥४॥ कार्योको कारणके अनुविधायिवाले होनेसे तिन्होंकी स्वभावता होती है अर्थात् कार्य कारणको सदृशता होती है तिस कार्य कारणकी सदृशतारूप हेतुसे द्रुत अर्थात् गलाई हुई धातुकी समान यह जीव नानाप्रकारकी योनि और आकृतियोंको धारण करता है ॥ ४ ॥ अत एव च शुक्रस्य बाहुल्याज्जायते पुमान् ॥ रक्तस्य स्त्री तयोः साम्ये क्लीवः शुक्रातवे पुनः॥५॥ इसी हेतुसे वीर्य के बहुलपनेसे पुरुष उपजता है और रक्तकी बहुलतासे कन्या उपजती है और बीर्य तथा रक्तकी समतामें हीजडा उपजता है और फिर भी और आर्तव ॥ ५ ॥ वायुना बहुशो भिन्ने यथास्वं बह्वपत्यता॥ वियोनिविकृताकाराज्जायन्ते विकृतैर्मलैः॥६॥ वायुकरके बहुतबार भेदित किये जाते हैं तब बहुत बालकोंकी एक बारमें उत्पत्ति होती है परंतु अधिकपनेसे वर्तमान वीर्यको जो बायु बहुत प्रकारसे भेदित करै है तब पुरुषरूप अनेक गर्भ होते हैं और जब अधिकपनेसे वर्तमान स्त्रीके रजको वायु बहुतप्रकारसे भेदित करे है तब कन्यारूप अनेक गर्भ उत्पन्न होते हैं, और विकृत अर्थात् दुष्ट हुये वातआदिकरके बुरी योनिवाले और विकृत आकृतिबाले गर्भ उपजते हैं ।। ६ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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