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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२६६) अष्टाङ्गहृदयेअति दग्धमें सब औषध पित्तके विसर्पके समान करै और स्नेहकरके अत्यंत दग्धहुयेमें अत्यंत रूक्ष देह देश प्रकृतिके अनुसार स्निग्ध औषधको प्रयुक्त करै ।। ५२ ।। समाप्यते स्थानमिदं हृदयस्य रहस्यवत् ॥ अत्रार्थाः सूत्रिताः सूक्ष्माः प्रतन्यन्ते हि सर्वतः॥ ५३॥ अष्टांगहृदयसंहिताका अतिगुह्यपदार्थवाला यह सूत्रस्थान समाप्त हुआ, इसमें सूक्ष्मरूपी और सब जगह विस्तृतहुये सब प्रयोजन सूचनमात्रकरके प्रकाशित किये हैं ॥ ५३॥ इति वैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुवाग्भट्टविरचितायामष्टांग हृदयसंहितायां प्रथमं सूत्रस्थानं सम्पूर्णम् ॥ १॥ यहां वैद्य सिंहगुप्त पुत्र वाग्भट्टविरचित अष्टांगहृदयसंहितामें प्रथम सूत्रस्थान समाप्त हुआ ॥ १ ॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां सूत्रस्थाने त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥ शारीरस्थानम्। प्रथमोऽध्यायः। पहले काय आदि आठ अंगोंका वर्णन किया कि यह कायादि आठ अंग चिकित्साके स्थान ह सो काया प्रथम कहनेसे सूत्रस्थानके अनन्तर शारीरस्थानको वर्णन करते हैं ।। अथातो गर्भावक्रान्तिशारीरं व्याख्यास्यामः । सूत्रस्थानके अनंतर गर्भावक्रांति शारीरनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे । इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः ॥ ऐसे आत्रेय आदि महर्पि कहते भये । शुद्धे शुक्रातवे सत्त्वः स्वकर्मक्लेशचोदितः ॥ गर्भः सम्पद्यते युक्तिवशादग्निरिवारणौ ॥१॥ शुद्ध रूप वीर्य और आर्तवमें अपने कर्मरूप क्लेशोंसे प्रोरत हुआ जीव गर्भरूपकरके प्राप्त होता हैं युक्तिके वशसे जैसे अरनीमें अग्नी, स्त्रियोंके जो अपत्यमार्गमें कुछेक कालागंधरहित वायुप्रेरित रक्त है उसको लोहित कहते हैं पिताका बोर्य और स्त्रीका आर्तव गर्भका बीज है यदि यह शुक्रवातादि दोषसे रहित हो तो इसमें गर्भकी उत्पत्ति होती है और यह जीव अपने पूर्व अर्जनकिये क्लेशदाता शुभाशुभकर्म अविद्या अयथार्थ वस्तुमें अयथार्थताका ज्ञान मैं हूँ ऐसा अभिमान करना For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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