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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १९४ ) मष्टाङ्गहृदये धूमं पीत्वा कवोष्णाम्बुकवलान्कण्ठशुद्धये ॥ सम्यकूस्निग्धे सुखोच्छ्वासस्वप्नबोधाक्षपाटवम् ॥ २३ ॥ पीछे धूमका पानकरके कछुक गरम पानीके कुलोको धारित करें कंठकी शुद्धिके अर्थ और जब अच्छीतरह स्निग्ध होजावे तब सुखपूर्वक उच्छास, शयन, जागना, इंद्रियोंकी चतुराई ये सब उपजते हैं ॥ २३ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रूक्षेऽक्षिस्तब्धता शोषो नासास्ये मूर्धशून्यता ॥ स्निग्धेऽतिकण्डुर्गुरुताप्रसेकारुचिपीनसाः ॥ २४ ॥ जो रूक्षरूप शिर होवे तो नेत्रोंकी स्तब्धता, नासाशोष, मुखशोष, शिरशून्यता ये सब उपजते हैं और अतिस्निग्ध शिर होवे तब खाज, भारीपन, प्रसेक, अरुचि, पीनस रोग उपजते हैं ॥ २४ ॥ सुविरिक्तेऽक्षिलघुतास्वरवऋविशुद्धयः ॥ दुर्विरित गोद्रेकः क्षामतातिविरेचिते ॥ २५ ॥ और अच्छी तरह विरेचन से शुद्धशिर होवे तो नेत्रोंका हलकापना, स्वर और मुखकी शुद्धि उपजती है और बुरीतरह विरिक्त हुये शिरमें रोगों की अधिकता उपजती है और अतिविरोचत शिर होत्रे तो शरीरमें कृशपना उपजता है ॥ २५ ॥ प्रतिमर्शः क्षतक्षामबालवृद्धसुखात्मसु ॥ प्रयोज्योऽकालवर्षेऽपि न त्विष्टो दुष्टपीनसे ॥ २६ ॥ क्षत, क्षाम, बालक, वृद्ध, मुखी, इन मनुष्यों में और अकालवर्षण में प्रतिमर्श नस्यको प्रयुक्त करना और दुष्टपनिस रोगमें प्रतिमर्श नस्य वांछित नहीं है ॥ २६ ॥ मद्यपीतेऽचलश्रोत्रे कृमिदूषितमूर्द्धनि ॥ उत्कृष्टोत्कुष्टदोषे च हीनमात्रतया हि सः ॥ २७ ॥ मदिराको पीये हुये और रुकेहुये कानों के मार्गोंवाले मनुष्य के और कृमिकरके दूषित मस्तकवाले मनुष्य के और बढा हुआ तथा चलायमान दोषत्राले मनुष्य के हीन मात्राकरके संयुक्त नस्यको प्रयुक्त करै ॥ २७ ॥ निशाहर्भुक्तवान्ताहः स्वप्नाध्वश्रमरेतसाम् ॥ शिरोऽभ्यञ्जनगण्डूषप्रखावाञ्जनवर्चसाम् ॥ २८ ॥ रात्रि, दिन, भुक्त, वांत, दिनका शयन, मार्गगमन, परिश्रम मैथुन, शिरका अभ्यंग, कुले, प्रस्राव, अंजन, वर्चस्, ॥ २८ ॥ दन्तकाष्टस्य हासस्य योज्योऽन्तेऽसौ द्विबिन्दुकः ॥ पञ्चसु स्रोतसां शुद्धिः क्लमनाशस्त्रिषु क्रमात् ॥ २९ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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